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प्रथम परिच्छेद प्राप्त हुई है। प्रभाद करोगे तो शोक में पड़ोगे ॥१७।। जैनधर्म के बिना न इन्द्र-सुख होता है और न ही मोक्ष ।।१८।। ये हो परम अक्षर है और यह ही परम मंत्र है । हे भाई ! मिथ्यात्व वचनों में मत पड़ो ।।१९।।
घता-हे जीव ! तु मिथ्यात्व का परित्याग कर जिससे कि संसारभ्रमण टूटे। समाप्त हो और मनुष्य पर्याय तथा स्वर्ग के सुख प्राप्त करके मोक्ष का द्वार प्राप्त करो ।।१-१९।।
[१-२०] धण्णंकर-पुण्णंकर का निजात्मावलोकन, अभयंकर का उनके प्रति
चिन्तन और मुनि विश्वकोति द्वारा श्रावक-धर्म वर्णन इस प्रकार दोनों भाई वहाँ ( अभयंकर के घर ) विचारते हैं कि हम जैनधर्म में रहकर भी निकम्मे हैं (आत्मकल्याण के लिए कुछ नहीं करते ) ॥१॥ इस लोक में यह व्यापारी-अभयंकर सेठ धन्य है जो प्रतिदिन मनि को (आहार) दान देता है ॥२॥ अष्ट द्रव्य लेकर विधि पूर्वक जिनेन्द्र की पूजा करता है। मनुष्यों को काम देकर जीवों का पोषण ( रक्षा) करता है ।।३।। वह सार्मियों पर वात्सल्य ( भाव ) स्नेह करता है, हृदय से हजारों जीवों पर दया करता है ||४|| अर्हन्त-देव के सिवाय किसी अन्य देव को नमन नहीं करता। जिनेन्द्र के वचनों को अथवा व्रतों को जो धारण करते हैं वह उनका सेवक है ।।५।। हम पुण्यहीन हैं, जो धर्म त्यागकर बह पाप रूपी पंक के नीचे निमग्न हैं ॥६॥ भव-सागर में पड़ा हुआ संसारी जीव बिना जैनधर्म रूपी कील ( का सहारा लिए वहाँ से ) नहीं निकलता है ।।७।। ऐसा विचार करके जैनधर्म में नत ( वे दोनों ) तल्लीन चित्त से शुभ ध्यान में बैठ जाते हैं ।।८|| वे किसी भी प्रकार से वहाँ प्राणियों को नहीं दुखाते । व्यापारी सेठ अभयंकर के यहाँ (ही) क्रीडा करते हैं ।।९।। उनके सम्बन्ध में ( एक ) दिन सेठ ने विचार किया-ये दोनों ( भाई ) भव्य हैं, जिनेन्द्र के भक्तों में मणि के समान श्रेष्ठ हैं। उपाय करता हूँ और क्षण भर में ( भव-सागर से ) पार लगाता हूँ ॥१०-११।। जिससे इन्हें देव-पद प्राप्त हो वह अजित अशुभकर्म रूपी मल को काटता हूँ ।।१२।। किसी दूसरे दिन विचार करके सेठ दोनों भाइयों को तत्काल लेकर चैत्यालय गया ।।१३।। काम रूपी दुर्वृक्ष को काटने के लिए कुठार स्वरूप सारभूत मुनि विश्वकीर्ति को प्रणाम किया ॥१४॥ भव्य जनों को संसार-सागर से तारनेवाले और स्याद्वाद-वाणी के विचारक, धर्मध्यान के लिए मौन पूर्वक स्थित वे मुनिराज शंका विहीन होकर श्रावक-धर्म
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