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प्रथम परिच्छेद पालने को प्रेरित करते हैं ।।१५-१६।। ( वे कहते हैं कि-) कर्म-मल को दूर करनेवाले ब्रह्मचर्य को पालो, त्रिकाल सामायिक करो, सुखकारी प्रोषध उपवास करो और अभिषेक तथा विलेपनपूर्वक जिनेन्द्र की पूजा करो॥१७-१८॥
घत्ता-शिव-पद प्रदायी दश लक्षण धर्म ( धारो), चारों प्रकार के दान दो, प्राणियों पर दया करो, आगम-ग्रंथ सुनो, यही श्रावकधर्म की विधि है । पालन कीजिये ।।१-२०॥
[१-२१] [ पूजा में पर द्रव्य-व्यवहार सम्बन्धी धण्णंकर-पुण्णंकर के विचार
तथा मुनि विश्वकीर्ति का उपदेश ] कहा भी है-जिसके प्रभाव से धर्म विहीन श्रावक धर्ममय हो जाते हैं वह वर्षगाँठ महोत्सव जिसके द्वारा चातुर्मास के पर्यों में मनाया जाता है वह ज यवन्त हो ।
दोहा-ऐसा विशुद्धमति मुनि विश्वकीर्ति से सुनकर उस व्यापारी अभयंकर सेठ के द्वारा दोनों कर्मचारी भाई नहलाये गये।
क्योंकि-स्नान में दस गुण होते हैं
(१) मानसिक प्रसन्नता का उत्पादक (२) अशुभ स्वप्नों का विनाश (३) शोकहारो (४) मलिनता को दूर करनेवाला (५) तेज-संवर्द्धक (६) सौन्दर्य का उद्योतकर (७) सिर के लिए सुखकर (८) कामाग्नि का उत्तेजक (९) स्त्रियों का मन्थन-मोहन और (१०) श्रमहर।।
सेठ अभयंकर दोनों भाइयों को स्नान कराकर और चन्द्रमा के समान श्वेत उज्ज्वल वस्त्र पहनाकर तथा बहुमूल्य अष्ट द्रव्य लेकर जहाँ रत्नमयी श्रेष्ठ प्रतिमा ( थी वहाँ ) गया ॥१-२|| जाते हुए सेठ कर्मचारियों को पूजा में चढ़ाने के लिए सुन्दर और स्वच्छ फल ले लेता है ।।३।। वहाँ वह आधे फूल कर्मचारी भाइयों को देता है । ( किन्तु ) वे भव्य दोनों भाई पर द्रव्य और वस्त्र नहीं लेते हैं ॥४॥ सेठ ( उनसे) पूछता है ( द्रव्य ) क्यों नहीं लेते ? मेरे मन में आश्चर्य और सन्देह ( प्रकट हो रहा ) है ।।५।। वे भाई कहते हैं ( हे सेठ ) यदि हम आपके फूल लेते हैं तो इससे आपका पुण्य होता है हमारा नहीं ॥६॥ हमने झूठ नहीं कहा है। जिनेश्वर की परम-ज्योति पर हमारी वज्र के समान दृढ़ प्रीति है ॥७॥ भोजन के समय जो नैवेद्य ( पकवान) का सेवन करता है उसके ही शरीर में तृप्ति होती ( सभी को तृप्ति प्राप्त नहीं होती ) ॥८॥ धर्म और अधर्म में यही भेद है।
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