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________________ प्रथम परिच्छेद ९३ है ( अथवा कैसे संभव है ) ||१०|| इतर धर्मों को कुचर्चा और निन्दा को टालकर अपने कुलधर्म का भली प्रकार पालन करो || ११ ॥ चाण्डाल का कार्य भी करना पड़े तो वह भले ही भली प्रकार कर लो परन्तु परनिन्दा न करो और न दूसरों के मरण का कारणभूत वचन या गुप्त बात कहो ||१२|| पर - चिन्तन से अनन्त संसार और आत्म-चिन्तन से परमपद प्राप्त होता है ||१३|| घत्ता - अष्ट मूलगुणों का पालन करते हुए सप्त व्यसन का त्याग कीजिए. और निर्मल सम्यग्दर्शन पूर्वक पहलो प्रतिमा धारण कोजिए || १ - १८ ॥ [ १-१९ ] सप्त व्यसन, अनन्तकाय, अभक्ष्य और अकर्तव्य विचार-विमर्श इस प्रकार जान करके जो आचरणीय हैं उनमें संलग्न हो जाओ । रागदोष से चित्त दूषित मत करो ॥ १॥ सप्त नरक प्राप्ति के कारण जानकर इन जुआ आदि सातों व्यसनों को त्यागो || २ || बाईस अभक्ष्य और बत्तीस अनन्तकाय को भी छोड़ो । वे बहुत हानिकर हैं ||३|| मधु ( शहद ), मद्य (मदिरा), मांस, मक्खन, गाजर-मूली, कंदरुआ आदि ( जमीकन्द), राख - माटी मत खाओ ||४|| सूरन, पिडालू और पिंग जाति के पदार्थ, बैंगन तथा रात्रि भोजन छोड़ो ||५|| घोल, बड़ा ( दही-बड़ा ) संधान अचार और द्विदल पदार्थ जानकार लोग कैसे जीमते हैं ( जीमेंगे ) || ६ || कच्चे दूध को जमाकर बनाये गये दही में द्विदल पदार्थों का मिश्रण द्विदल कहलाता है । उसे खाने में यति पाप बताते हैं ||७|| पाप से नरकवास जानो । वहाँ भी महान् दुःख से (जीव ) पकाया जाता है || ८ || अनछना पानी नहाने-धोने में लेने से जोव जलचर-योनि प्राप्त करता है ||९|| नियम लेकर प्रत्याख्यान करके णमोकार मंत्र हृदय में धारण करो ||१०|| विकथाओं को टालकर प्रतिक्रमण, सामायिक और प्रोषध व्रत को सम्हालो ॥ २१ ॥ जीवों के द्वारा जो धन खेत में बोया जाता है वह परलोक का सम्बल जानो || १२ || वर और बधू दोनों पक्ष के जो लोग फिर विवाह आदि में व्यय करते हैं वे इस भव में और आगामी भव में मानसिक व्याधियाँ पाते हैं ||१३|| दया करके झूठ मत बोलो । पराये धन को तृण सम और परस्त्री को माता के समान ( समझो ) || १४ || धन-धान्य और खेत आदि परिग्रह का प्रमाण करो । कम-ज्यादा तौलना -मापना छोड़ो || १५ || जिनेन्द्र ने इस प्रकार धर्म का संक्षिप्त स्वरूप कहा है । उसकी आराधना करो जिससे कि क्लेश ( दुःख ) टूटते हैं । नष्ट हो जाते हैं || १६ || सम्पदा पुण्य के योग से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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