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________________ प्रथम परिच्छेद ८७ का मांस काटकर उनके मुंह पर मारा जाता है ॥१३।। इस प्रकार नरक वास में मद्य, मांस और मधु तथा परस्त्रीविलास के सेवन से यह फल प्राप्त होता है ।।१४।। जो अभक्ष्य भक्षण करते हैं उन्हें वहाँ कर्कश पत्थर पर हाथ से वैसे ही पछाड़ा और पीटा जाता है जैसे वस्त्र ॥१५॥ पारा जैसे खंड-खंड किये जाने पर भी पुनः मिलकर एक हो जाता है ऐसे ही यहाँ कुकर्म और भोग-विषयों के वशीभत मनुष्यों का पिंड खंड-खंड होकर भी मिल जाता है ।।१६।। मिथ्यात्वी और मोही प्राणी चारों गतियों में भ्रमण करते हुए तीक्षण दुःख सहता है ।।१७।। अतः गुरुओं की वाणी मन में ही स्मरण करो। मन में पड़ी गुरु-वाणी शिवंकरा होतो है ।।१८।। घत्ता-दुर्वचन रूपी बाणों से आहत होकर जिसके द्वारा बहुत पर्याएँ धारण की गयीं और त्यागी गयीं ऐसा मोहासक्त जीव इस प्रकार चारों गतियों की योनियों में भ्रमण करता है ।।१-१५॥ [१-१६ ] धण्णंकर-पुण्णंकर भाइयों का सांसारिक-चिन्तन और कर्तव्यबोध बद्धिमानों ने जीवन, धन और यौवन को अंजुलि के जल के समान अस्थिर बताया है ॥१।। नया रखने का यत्न करते हुए भी वह क्षण-क्षण में क्षीण होता है । ( संसार में ) एक हँसते हुए और एक रोते हुए दिखाई देता है ।।२॥ मित्रता, प्रभुत्व और इन्द्रिय-विषयों का समय भी क्षणिक है । मृत्यु से घिरे हुए हे जीव ! मृत्यु को धर्म से काटो ॥३॥ कल कार्य प्राप्त होता है या नहों ( क्या भरोसा ) अतः कल करनेवाले कार्य को आज (ही) करो ॥४॥ माता-पिता, पुत्र, ये सब माया जाल हैं। उसमें पड़ा हुआ जीव कुटुम्ब का विस्तार करता है ।।५।। पाप करते हुए किसी प्रकार की शंका भी नहीं करता और फिर आप अकेला दुःख सहता है ॥६॥ हे गृहस्थ ! उन्हें प्राप्त करता है अथवा निश्चय से नहीं इस ज्ञान के वशोभूत होकर अत्यन्त आसक्ति से उनमें हृदय को न बाँधो ॥७॥ जैसे परदेशी पथिक उदासीन चित्त से अर्थात् अपना न मानकर ( पराये घर में ) रहता है ऐसे ही पराया घर मानकर उदासीन चित्त से घर में रहो ॥८॥ सूर्योदय हो जाने पर वह एक अन्धा ही है जो बाहर निकलकर कन्दरा में गिरता है ।।९।। स्मशान में सारहीन ध्यान करनेवाले के समान कोई भी परमार्थ को नहीं जानता है ॥१०॥ मेरे बिना कुटुम्ब का भरण-पोषण कैसे होगा ऐसा विचार करके धर्म की प्राप्ति में विलम्ब मत करो ॥११॥ (वियोग होने पर ) एक दो दिन एक घड़ी रोकर फिर सभी कोई खाने-पीने लगेंगे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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