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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ५. प्रभवाचार्यजी, शय्यम्भवजी, आर्य महागिरि, आर्य सुहस्ती, भद्रगुप्तजी, श्री शीलाङ्क, श्री वर्द्धमानसूरिजी, श्री धर्मदेव, श्री हरिसिंह, श्री सर्वदेव तथा भद्रबाहगुरु की स्तुतियाँ एवं प्रशस्ति-मात्र-एक-एक श्लोक के माध्यम से की गयी है। इस प्रकार ८४ वीं गाथा तक क्रमश: श्री यशोभद्रसूरि, श्री सम्भूतसूरि, श्री स्थूलभद्रजी, आर्यसमुद्र, श्री मंगु, श्री सुधर्माजी, श्री वज्रस्वामी, श्री आर्यरक्षित, उमारवातिवाचक देवाचार्य, नेमिचन्द्र, उद्योतन सूरि, श्री जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागर सूरि. जिनभद्रजी, जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, देवभद्रसूरि आदि की स्तुति एवं प्रशस्ति की गयी है।
शेष ६६ श्लोकों के द्वारा युगप्रधान श्री जिनवल्लभसूरिजी के जीवन का बड़ा ही सुंदर एवं मार्मिक ढंग से वर्णन किया गया है।
विघ्नविनाश के लिए प्रारम्भ प्रायः सभी विद्वानों के द्वारा अपने ग्रन्थों में अपनेअपने इष्ट देव तथा गुरु की वन्दना की गयी है। यहाँ पर भी जिनदत्तसूरिजी प्रथम एवं द्वितीय गाथा के द्वारा प्रथम मनिपति श्री ऋषभ जिनेन्द्र और उनके प्रथम गणधर श्री ऋषभसेन की स्तुति करते हुए तथा मंगलाचरण का निर्वाह करते हुए लिखते हैं
गुणमणिरोहणगिरिणो रिसह-जिणिंदस्स पढम-मुणिवइणो।
सिरिउसभसेण-गणहारिणोऽणहे पणिवयामि पए।। १ ।। रोहणाचलपर्वत के समान गुणरूपी रत्नों को उत्पन्न करने वाले श्री ऋषभ जिनेन्द्र और उनके प्रथम गणधर श्री ऋषभसेन के पवित्र चरणों की मैं वन्दना करता हूँ।
तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार रोहणाचल पर्वत रत्नों की खान है, रत्न ही उत्पन्न करता है, ठीक उसी प्रकार प्रथम मुनिपति श्री ऋषभ जिनेन्द्रजी सभी गुणरूपी रत्नों की खान है। रत्नों से तो मात्र मनुष्य की गरीबी ही दूर हो सकती है परन्तु गुणरूपी रत्न तो इतने बहमूल्य एवं कीमती होते हैं कि उनकी कीमत चुकाई ही नहीं जा सकती। अतः इतने गुणों से युक्त श्री ऋषभ जिनेन्द्र जी के चरण कमल को मैं नमस्कार करता है उनके साथ ही साथ प्रथम गणधर श्री ऋषभसेन को भी मैं नमस्कार करता हूँ।
पुनः द्वितीय गाथा में आचार्य श्री दादासाहब ने दूसरे जो गणधर हैं अर्थात् परम्परा सह सम्पूर्ण गणधर समूह है, जो आनन्द की राशि है, उस सम्पूर्ण गणधर समूह की वन्दना की है। इस प्रकार पूज्य गुरुओं के द्वारा वर्णित मंगलाचरण का भी निर्वाह होता है । तथा गुरुवंदन भी सम्पूर्ण रूप से सफल होता है।
अग्रिम गाथाओं के द्वारा अर्थात् गाथा क्रमांक ३ से ६६ तक शेष गणधरों का वर्णन किया गया है।
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