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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
इस प्रकार मंगलाचरण के बाद शेष विभिन्न गणधरों की स्तुति क्रमश: गाथा क्रमांक २ से ६६ तक की गयी है। विस्तारभय से मात्र गणधरों के नाम ही यहाँ उल्लेखनीय हैं -
श्री जम्बूस्वामी २. गौतम स्वामी ३. श्री सुधर्मा स्वामी ४. श्री प्रभवाचार्यजी ५. श्री शय्यम्भवजी ६. श्री आर्यमहागिरि
श्री आर्यसुहस्ती ८. श्री भद्रगुप्तजी ९. श्री शीलाङ्क श्री वर्धमानसूरिजी ११. श्री धर्मदेवजी १२. श्री हरिसिंह श्री सर्वदेवजी १४. श्री भद्रबाहुजी १५. श्री यशोभद्रसूरिजी श्री सम्भूतसूरि १७. श्री स्थूलभद्रसूरि १८. श्री आर्यसमुद्र श्री मंगु २०. श्री सुद्धर्मा २१. श्री वज्रस्वामी श्री उम स्वाति वाचकजी२३. श्री हरिभद्राचार्यजी २४. श्री देवाचार्य श्री नेम्चिन्द्र २६. श्री उद्योतनसूरि २७. श्री जिनेश्वरसूरि श्री बुद्धिसागरसूरि २९. श्री जिनभद्रसूरि ३०. श्री जिनचन्द्रसूरि श्री अभयदेवजी ३२. श्री देवभद्रसूरि।
शेष ६६ गाथाओं के माध्य से जिनवल्लभसूरिजी के जीवन की झाँकी को सुन्दर एवं कलात्मक ढंग से प्रयुक्त किया गया है। ये गाथाओं में मात्र जिनवल्लभसूरिजी के जीवन की झाँकियों को ही नहीं अपितु समस्त महात्माओं के जीवन सम्बन्धी लक्षणों एवं कार्यप्रणाली एवं प्रवृत्तियों का कलात्मक वर्णन इस प्रकार से किया गया है कि देखते, पढ़ते एवं सुनते ही बनता है।
इस प्रकार शेष गाथाओं का वर्णन निम्न प्रकार से करेंगे
श्री हरिभद्रसूरिजी के विषय में लोगों ने विभिन्न मतों को उत्पन्न किया है । परन्तु यह मत तो चैत्यवासियों के द्वारा उद्धृत किये गये थे। श्री हरिभद्रसूरिजी ने १४०० प्रकरणों की रचना करके चैत्यवास के दोषों को एवं जैन धर्म में प्रचलित अन्यान्य दोषों को पूर्णरूपेण दूर करने का प्रयास किया है। इसी प्रकार चैत्यवास एवं अन्य समाजविरोधी तत्त्वों को दूर करने के लिए आचार्य परम्परा वाले श्री वर्धमानसूरिजी ने तथा उनके शिष्यों ने विचार किया कि 'चैत्यवास में रहना अयोग्य है' ऐसा विचार करके सत्यमार्ग की खोज करके शुद्ध नये वसतिवास' मार्ग को अपनाया।
सुमतिगणि रचित गणधर बृहद्वृत्ति में व्याख्याकार ने बताया है कि-चैत्य में निवास करने से जन्म जन्मान्तर तक भयंकर फल को भोगना पड़ता है । इसके कारण
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