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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
(६) श्रुतस्तव
सप्रभाव स्तोत्र (८) पार्श्वनाथ मंत्र-गर्भित स्तोत्र
औपदेशिक-कृतियाँ (९) चैत्यवंदन कुलक (१०) सन्देह-दोलावली (११) उत्सूत्र-पदोद्घाटन कुलक (१२) उपदेश कुलक
प्रकीर्ण कृतियाँ (१३) शान्ति पर्व विधि (१४) वाडिकुलक (१५) आरात्रिक वृत्तानि
*** १. "श्री गणधर सार्द्धशतकम्" युगप्रधान आचार्य श्री जिनदत्तसूरि द्वारा विरचित “गणधरसार्धशतकम्' के निश्चित एवं प्रामाणिक समय के विषय में कोई उपलब्धि नहीं है। परन्तु पूज्य बड़े दादा साहब की आचार्य पदवी सं. ११६९ में वैशाख कृष्ण ६ शनिवार को सम्पन्न हुई थी। पूज्य दादा साहब का निर्वाण भी बारहवीं सदी के बाद अर्थात् वि.सं.१२११ में हुआ। इस प्रकार की रचना सम्बन्धी कुछ निश्चित तिथि प्राप्त न होने से यह तो निर्विवाद कहा जा सकता है कि ग्रन्थ बारहवीं सदी में रचित है। क्योंकि युगप्रधान सूरिजी का युग भी ग्यारहवीं सदी का उत्तरार्ध से बारहवीं सदी के पूर्वार्ध के बाद तक अर्थात् वि.सं.१२११ तक है।
आचार्य जिनदत्तसूरिजी ने प्राचीन आचार्यों का अनुसरण करते हुए कई रचनाएं प्राकृत भाषा में भी की है। जहाँ पर स्तुतिस्तोत्रो में उन्होंने संस्कृत का प्रयोग किया है
और लोकोपदेश के लिए अपने समय की अपभ्रंश भाषा का प्रयोग किया है वहाँ पर शास्त्रीय ग्रंथों में खास करके प्राकृत का प्रयोग किया है । गणधर सार्द्धशतक ऐसी रचना है जिसमें उन्हें अत्यन्त प्राचीन समय से लेकर अपने युग तक के गणधरों का अर्थात् महान युगप्रधान आचार्यों का इतिहास देना था। इसलिए उन्होंने इस ग्रंथ की रचना प्राकृत भाषा में की है।
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