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और वाचनाचार्य को एक कम्बल दी जाती है । यह उपवेशन विधि है ।
५. महत्तरा साध्वी:
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महत्तरा साध्वी के नगर प्रवेश में श्राविकाएं सन्मुख आती हैं। शंख नहीं बजता, श्राविकाएं गीत नहीं गाती, श्रावक सन्मुख नहीं आते, मंगल कलश सन्मुख नहीं आता है। मंदिर प्रवेश के समय शंखवादन, लुंछन आदि कुछ भी नहीं किया जाता है । कर्पूर क्षेप होता है । इष्ट पट्ट (पीठफलक) लघु कंबली और वस्त्र दिया जाता है। उपवेशन में दो कम्बली दी जाती है । प्रवर्तिनी के मस्तक पर कर्पूर क्षेप नहीं किया जाता है । पृष्ठीपट्ट पर लघु कंबली बिना किया जाता है। उपवेशन में एक कम्बल दिया जाता है । यह संक्षेप से प्रवर्तिनी की प्रवेश विधि है
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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
इति नवांगी टीकाकार की परम्परा में श्री जिनवल्लभसूरि के पट्टपर विराजित जिनदत्तसूरि ने पदस्थों के लिए यह पद विधि बताई है ।
जिन पतिसूरि के उपदेश से उनके शिष्य जिनपाल उपाध्याय ने इसे टिप्पण में लिखी है। इस तरह की विधि से विद्यमान सकल संघ का सर्व भव्य होगा ।
यह पाठ जिनपाल उपाध्याय लिखित टिप्पण से लिखा गया है । लेखक वाचक का कल्याण हो ।
विशेष :
इस कृति में आचार्य जिनदत्तसूरि ने बारहवीं शताब्दी में पदस्थों - आचार्य आदि पदाधिकारी की क्या-क्या व्यवस्था थी, नगरप्रवेश के समय क्या-क्या करना चाहियें उसका विवरण दिया है। आचार्यश्री जैन साध्वाचार में भी कितने दक्ष थे, इस बात की प्रतीति इस लघु रचना से होती है ।
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(१)
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(३)
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ब. प्राकृत कृतियाँ स्तुतिपरक कृतियाँ
गणधर सार्द्धशतकम्
सुगुरु-संथव सत्तरिया ( गणधर - सप्ततिका) सर्वाधिष्ठायी स्तोत्र
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सुगुरु- पारतंत्र्य स्तोत्र
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