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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ९. कर्म की मुद्रा को वेधनेवाले, इच्छित पद की प्राप्ति के लिए अपनी पर्षदा के साथ में आये हुए इन्द्रने जिन भगवान का जन्मकल्याणक करने के लिए पर्व में इकट्ठे हुए और अमृत और घृत से स्वर्णकलशों को भरकर उस पवित्र सुवर्णगिरि (मेरु पर्वत)ऊपर चमत्कारी स्नात्र-पूजन किया।
१०. विधिपूर्वक स्नात्र करके आनंद समूह से जिनका शरीर विभक्त हुआ ऐसे इन्द्रगण ने इन्द्राणियों के साथ अपनी स्वर्गराज की पदवी और देवभव को कृतार्थ मानते हुए आनंद से नृत्य किया।
११. जो सावन के समय में उत्पन्न हुए बड़े बड़े काले बादलों के गर्जारव को तिरस्कृत करते थे, जिसके मद से धूसरित कपोलों में मत्त भँवरों की श्रेणी में छिपी हुई है, ऐसे हाथियों के द्वारा शीघ्र फैलानेवाली जो गर्जना है, वह करते हैं।
१२-१३. खिले हुए नयनों से शोभायुक्त, छोटी सी लास्यलीला से विकसित, कामयुक्त मुख से कमलकान्ति को जीतनेवाली, झुके हुए अंगोंवाली, स्तनों के भार से नमी हुई, चपल त्रिवली से जिसकी छोटी सी कटी शोभित हुई हैं। और हावभाव अंगभंगी से उत्पन्न हुई किरणों की केली से समग्र देवतागण जिसके द्वारा क्रीडा करते है, अप्सराएँ अपने नाटक द्वारा आकृष्ट करती हुई, अत्यन्न मनोहर कटाक्षयुक्त नृत्य जिसके आगे कर रही हैं।
१४. अज्ञान की बाधारहित ऐसे अजितनाथ जिनको और संसार के किनारे पर (मोक्ष में)विराजित ऐसे शान्तिनाथ को नमस्कार करके मानव अज्ञान की बाधारहित, अपराजित और संसार के किनारे पर विराजित होकर शान्तिमय हो जाता है।
१५. इस प्रकार बिना इच्छा के फल(मोक्षफल)को पाने की इच्छावाला, समतावाला, अशठ, अकुण्ठ, सदाक्रियाशील, ऐसे इन्सान को सदा श्रेष्ठ सुख देनेवाला है। जो इस स्तवन का आनंदपूर्वक पठन करता है। पक्ष आदि पर्यों के दिनों में स्वाभाविक रीति से अजित और शांति जिन की लब्धी से जिनेश्वरों द्वारा उस इन्सान को जनता की नम्रता प्राप्त होती है। और वह (इन्सान)सुखवाला और कर्मो को नष्ट करनेवाला होता है । अथवा “जिनदत्त” को उसकी प्रजा नमस्कार करती है।
विशेष-जैन धर्म में चौवीस तीर्थंकरों के अन्तर्गत दूसरे तोर्थंकर का नाम अजितनाथ और सोलहवें तीर्थंकर का नाम शांतिनाथ है।
अजितनाथ भगवान का जन्म अयोध्या नगरी में हआ था। आपके पिता का नाम जितशत्रु तथा माता का नाम विजया था। शरीर का रंग कनक समान था। देह का
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