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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
आपके अनेक भक्त श्रावक श्राविका जैन धर्म के अनुरागी थे । इस तरह शासन की धर्मप्रभावना करते करते अनेक भव्य जीवों को उपदेश देते हुए, जीव दया की उद्घोषणा करते हुए सं. १२११ में आप अजमेर पधारे । आपश्री के पट्टधर शिष्य जिनचंद्रसूरिजी हुए । उनकी दीक्षा सं. १२०३ के फाल्गुन सुदी नवम को अजमेर में हुई। इनकी प्रतिभा देखकर सूरि महाराज ने वि. सं. १२०५ वैशाख शुक्ला छठ के दिन विक्रमपुर में उन्हें आचार्य पदवी देकर अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उस समय आचार्य महोत्सव का आयोजन और नन्दी महोत्सव रासल श्रेष्ठी द्वारा किया गया था। आचार्य जिनचन्द्रसूरि ४९ लघुवयस्क होते हुए भी बड़े विद्वान एवं गुरुभक्त थे । वे आचार्यपद के उत्तरदायित्व का गंभीरता से निर्वाह करने लगे । आपने अपने गुरुमंत्रो का सर्वत्र प्रचार और प्रसार किया ।
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स्वर्गवास :
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आचार्य जिनदत्तसूरिजी भ्रमण करते हुए, विख्यात ऐतिहासिक अजमेर नगर में पधारे । जीवन-पर्यन्त आपने योगबल, तपोबल एवं ज्ञानबल से जिनशासन की उन्नति की । अपना अन्तिम समय निकट जानकर, अनशनव्रत धारण करके, आत्मरमणता में लीन होकर, सर्व जीवों से क्षमा-याचना करके, पंचपरमेष्ठी नवकार मंत्र का स्मरण करते हुए वि.सं. १२११ ५० आषाढ सुदी ग्यारस गुरुवार को ७९ वर्ष का आयु पूर्ण कर आप देवलोक में सिधारे । संघ में हाहाकार मच गया । मानों जैन-जगत का देदीप्यमान सूर्य लोप हो गया ।
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४८.
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५०.
ख. बृहद् गुर्वावलि में फाल्गुन सुदि नवम है, लेकिन खरतर पट्टावली-२ में कृष्ण नवम है।
(क)
खर. बृहद् गुर्वावलि - पैरे. ३८, पृष्ठ- २०
खरतर पट्टावली - २ में वि.सं. १२११ लिखा है, लेकिन सं. १२०५ सही है ।
फाल्गुन
(ख)
खरतर पट्टावली - २, जिनविजयजी पैरे. - ४४, पृष्ठ- २७
आचार्य जिनचंद्रसूरिजी के बारे में विशेष जानकारी के लिये "मणिधारी जिनचन्द्रसूरि" संपा- अगरचंदजी, भंवरलालजी नाहटा देखें ।
खरतर पट्टावली-२ में पैरे. ४४ में पृष्ठ. २७
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