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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
५७ (अर्थात् - जिनके चरण कमलों में समस्त देव दासानुदास की तरह लोटते हैं, जो मरुस्थली में कल्पवृक्ष जैसे हैं, ऐसे युगप्रधान-युग में प्रधान श्री जिनदत्तसूरिजी की जय हो!)
इस प्रशस्ति को सुनकर नागदेव श्रावक अति प्रसन्न हुआ। इस घटना के बाद सर्वत्र “युगप्रधान " पद" से आचार्यप्रवर प्रसिद्ध हुए। युगप्रधान पद का वर्णन “खरतर गुरुवर्णन छप्पय'४२ में इस प्रकार किया गया
जिनदत्त नंदहु सु पहु जो भारहम्मि जुगपवरो। अम्बाएधि पसाया विनाउ नागदेवेण ।। नागदेव बरसावएण उजिंत चडेविणु। पुच्छिय जुगवर अम्बएवि उववास करेविणु।। तसु सत्ति तुट्ठाय तीय, करि अक्खरि लिखिया। भणिउज वाइय पम्ह(?) सय, जुगपवर सु धम्मिय ।। भमिऊण पुहवि अणहिलपुरि जुगपहाण तिणि जाणियउ । जिणदत्तसूरि नंदउ सुपहु अम्बाएवि वखाणियउ ।। ४३
(खरतर गुरुगुणवर्णन छप्पय पद्य-२३) शिष्य परम्परा:
आचार्यश्री का शिष्य प्रशिष्य समुदाय भी विशाल था। ये परम्परा नव शताब्दियों से आजतक चली आ रही है। आचार्यश्री के करकमलों से हजारों ने दीक्षा ली। पट्टावलियों के आधार पर ४३ १५०० साधु,१००० साध्वी जी का उनका समुदाय था। एक बार वागड़ देश में सभी साधु साध्वीजी को बुलाकर आपश्रीने वाचना दी। ४४ ।।
जीवदेवमुनि को आचार्य पदवी दी, प. जिनरक्षित, शीलचन्द्र, स्थिरचन्द्र, वरनाग, रामचन्द्र, मणिभद्र इन सभी को वाचनाचार्य की पदवी दी। श्रीमती, जिनमती, पूर्णश्री, जिनश्री और ज्ञानश्री इन पाँचों को ‘महत्तरा' ४५ पदवी से विभूषित किया। ४१. (क) युगप्रधान पद प्राप्ति का उल्लेख गणधर सार्द्धशतक वृत्ति में भी मिलता है।
(ख) खरतगच्छ पट्टवली- ३, पृष्ठ ५० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह-अगरचंदजी नाहटा- पृष्ठ-३० खरतर पट्टावली- १, जिनविजयजी, पृष्ठ-१०
खर. बृहद् गुर्वावलि- " , पैरे. - ३५, पृष्ठ- १९. ४५. (क) वही. ५१
(ख) गणधर सार्द्धशतक बृहद् वृत्ति-चारित्र सिंह गणि- प्रताकार - २९
४४.
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