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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
सोमचंद्र मुनि ने पाटण में रहकर न्याय, व्याकरण, आगमिक एवं सैद्धान्तिक अध्ययन किया। बाद में ग्रामानुग्राम विचरण करने लगे। सोम मुनि की प्रतिभा आगमों के अध्ययन से और अधिक निखर रही थी। ब्रह्मचर्य की साधना अद्भुत थी। साधना और विद्वत्ता का उनमें अनन्य संगम था और साथ ही दिल में समन्वय की भावना थी। जहां जाते वहां जनता स्वतः उनके दर्शन के लिए दौड़ी आती थी। आचार्यपद :
नवांगी टीकाकार आचार्यश्री अभयदेवसूरिजी के पट्टधर श्री जिनवल्लभसूरिजी ने देवभद्रसूरिजी को पूर्वनिर्देश दे दिया था कि मेरे बाद सोममुनि इस पद के योग्य है। देवभद्रसूरि ने पूर्व संकेतानुसार सर्वसम्मति से सोममुनि को एक पत्र भेजा “आप चितौड़ शीघ्र पहुँचे क्योंकि आप श्री जिनवल्लभ सूरिजी के पट्ट पर नवीन आचार्य स्थापित किये जायेंगे।” पत्र मिलते ही आप शीघ्र चितौड़ आ पहुँचे।
_ वि.सं. ११६९ वैशाख कृष्णा षष्ठी शनिवार के दिन सन्ध्या के समय आपको शुभ मुहूर्त में चतुर्विध संघ के समक्ष देवभद्रसूरिजी ने चित्तौड़ में महावीर स्वामी विधिचैत्य में आचार्य पद से विभूषित किया। १२ आपका नाम “श्री जिनदत्तसूरिजी' रक्खा गया। १३ विहार एवं जिनधर्म का प्रचार-प्रसार :
आचार्य पदवी के पश्चात् आपने सोचा- किधर विहार करूँ। अतः अपने उपकारी हरिसिंह सूरि का “अखंड तेले" की साधना के साथ स्मरण किया। साधना की शक्ति से आकृष्ट हरिसिंहाचार्य जो स्वर्गवासी होकर देव बने थे, उन्होने प्रगट होकर कहा- “मरुस्थल, मारवाड़, सिन्ध की तरफ विहार करो। देश-देश में विचरण करके भ्रमित जनता का उद्धार करो।"
१०.
खर. बृहद् गुर्वावलि-जिनविजयमुनि पैरे.-३०, पृष्ठ १५ खरतरगच्छ पट्टावली -२, जिनविजयमुनि पैरे. ४४ पृष्ठ २४. शेरसिंहजी गोडवंशी ने श्री जिनदत्तसूरि चरित्र में जेठ वदी लिखा है। पर वह ठिक नहीं है। गणधर सार्द्धशतक गाथा-८४ में स्वयं जिनदत्तसूरि ने देवभद्रसूरि को गुरु बताया है। खर. बहद् गुर्वावलि-पैरे.३०, पृष्ठ १५ वही, पैरे. ३२, पृष्ठ १६
१३.
१४.
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