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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान जिनेन्द्रभक्ति मे लीन माता अपने पुत्र को लेकर, उपाश्रय में वंदन और प्रवचन श्रवणार्थ आया करती थी। बालक के शुभ लक्षणयुक्त पदचिह्नों को देखकर साध्वीजी ने माता से कहा
“यह बालक धर्म की महान उन्नति करने वाला है । आप इसे शासन को समर्पित कर दें तो बड़ा लाभ होगा। यह एक कुल का दीपक न बनकर विश्व का दीपक बनने वाला है।''
धर्मिष्ठ माता ने सहर्ष स्वीकृति दी और अपने आपको भाग्यशाली समझने लगी। मुनिदीक्षा :
वि.सं. ११४१ में नौ वर्ष की अल्पायुमें उपाध्याय धर्मदेव के पास इस होनहार बालकने दीक्षा ग्रहण की।६
नवदीक्षित का नाम “सोमचन्द्रमुनि' रखा गया।"
उपाध्याय जी ने नवदीक्षित मुनि को साध्वाचार आदि की शिक्षा प्रदान करने के लिए “सर्वदेवगणि” को आदेश दिया । सोमचंद्र मुनि विधिवत् चारित्र का पालन करते हए, शास्त्रों का अध्ययन करने लगे।
एक दिन बालमुनि शौच क्रिया के लिए बाहर गये। बालस्वभाव के अनुसार एक पौधा तोड़ दिया । वस्तुतः मुनि को यह ज्ञान नहीं था कि वनस्पति को तोड़ना एक हिंसा है और मुनिजीवन में तो वनस्पति को स्पर्शना भी सर्वथा निषेध है।
सर्वदेवगणि ने यह देखकर कहा “ये रजोहरण और मुखवस्त्रिका मुझे दो तथा अपने घर जाओ''बालमुनि ने क्षमायाचना करते हुए विचक्षण उत्तर दिया- “मैं घर तो जाऊँगा किन्तु आप मेरी चोटी जो मेरे मस्तक पर थी वह कृपया वापस दीजिये !''९ गणिजी निरुत्तर हो गये। उन्हों ने सोचा- अहो यह बालमुनि प्रतिभा सम्पन्न लगता है।
गणधर सार्द्धशतक बृहद्वृत्ति- चारित्र गणि, पृष्ठ २४ गणधर सार्द्धशतक पद्य-७८, १४८ में उपाध्याय धर्मदेव को धर्मगुरु सम्बोधित किया है। खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावलि-पैरे-२७, पृष्ठ १४ गणधर सार्द्धशतक- चारित्रगणि टीकाकार, पृष्ठ २४ खर. बृहद् गुर्वावलि- जिनविजयमुनि पैरे.-२७, पृष्ठ १४
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