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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान उपाध्याय जिनपाल के उल्लेखानुसार उस समय आसिका नामक नगरी में कूर्चपुर गच्छीय र न्यवासी जिनेश्वर आचार्य के पास बालक वल्लभ पढने आता था। ५२ बालक मेधावी
औ प्रतिभासम्पन्न था। जिनेश्वर बालक के प्रति आकृष्ट हुए। जिनेश्वर ने बालक को अधिकृत करके, दीक्षित कर अपना शिष्य बना लिया।
आचार्य ने शिष्य को तर्क, न्याय, व्याकरण सभी विषयों में पारंगत किया। गुरु ने योग्यता देखकर वाचनाचार्य पद पर नियुक्त किया।
___ आचार्य जिनेश्वर ने सोचा कि जिनवल्लभ को सिद्धांत ग्रंथों की शिक्षा दिलाना आवश्यक है । उस समय सिद्धांत ग्रंथों के ज्ञान में अभयदेवसूरि प्रख्यात थे।
गुरुने ज्ञानार्जन करने के लिए पाटण में अभयदेव सूरिजी के पास भेजा। यहां से “जिनवल्लभ गणि' के नाम से प्रसिद्धि हुई ।
बालमुनि जिनवल्लभगणि को श्रमण जिनशेखर के साथ नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरि के पास भेजा गया । वे दोनों गुरु का आशिर्वाद पाकर पाटन पहुँचे । अभयदेवसूरि भी स्फूर्त मनीषा के धनी जिनवल्लभ जैसे योग्य शिष्य को पाकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने थोड़े ही समय में जिनवल्लभ को सिद्धान्त का पारगामी विद्वान बना दिया। सुमतिगणि और जिनपालोपाध्याय दोनों ने ही यही लिखा है कि उन्होंने “सर्व ज्योतिष शास्त्र' पढ़े थे।
अभयदेवसूरि के पास अध्ययन समाप्त कर जब ये अपने गुरु के पास जाने लगे तो उन्होने कहा कि सिद्धान्तों के अध्ययन का यही सार है कि “तदनुसार आचार का पालन किया जाय।'' ५४ जिनवल्लभगणि ने अभयदेवाचार्य के चरणों में गिरकर कहा कि "गुरुदेव! आपकी जो आज्ञा है वैसा ही निश्चित रूप से करूगाँ।” विद्यागुरु की इस हित शिक्षा की उन्होने गांठ बाँध ली और अपने गुरु जिनेश्वर से मिलकर चैत्यवास का त्याग किया। आज्ञा प्राप्त कर वे पुनः अणहिलपुर पतन गये और अभयदेवसूरि को अत्यन्त आदरपूर्वक प्रणाम किया। उन्हीं के पास उपसम्पदा ग्रहण की। ५५
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“खरतगगच्छे “जयतिहुअण' विणा पडिक्कमणं न लब्भई-उद्धृत वृद्धाचार्य प्रबन्धावली, पृष्ठ ३. (क) खर. युगप्रधानचार्य गुर्वावलि-८. (ख) जिनवल्लभ सूरिजी के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिये महो. विनयसागर
के द्वारा लिखित “वल्लभ-भारती'' ग्रंथ देखें। खर. युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि-९.
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