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________________ ३६ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान एवं कोट्याचार्य टीकाएँ सुरक्षित हैं । अवशिष्ट टीकाएँ काल के दुष्प्रभाव से लुप्त हो गई हैं | अतः इस क्षतिपूर्ति के लिए संघ हितार्थ टीकाएँ रचने का कार्य प्रारंभ करो' इस कार्य पूर्णता के लिए आपने आयम्बिल की तपस्या करने का निश्चय किया । शासनदेवी ने कहा- 'यदि कहीं आपको शंका हो, तो मेरा स्मरण करना, मैं सीमन्धर स्वामी से पूछकर प्रश्नोत्तर दूँगी ।' आचार्यश्रीने टीका-लेखन कार्य प्रारंभ किया । त्योंहि विचार आया कि टीका संशोधन का कार्य सुविहित विद्वानों से कराना उचित नहीं होगा । सुविहित समुदाय की अपेक्षा चैत्यवासी से कराना श्रेयस्कर होगा क्योंकि पू. जिनेश्वरसूरिजीने चैत्यवास का उन्मूलन का कार्य प्रारंभ किया है, उससे चैत्यवासी क्षुब्ध हो रहे है, अतः वे इसे अमान्य कर देगें तथा दूषण ढूढते रहेंगे तो टीकाएँ एकपक्षीय हो जायेगी। इसलिए चैत्यवासी का आश्रय लेकर प्रमाणिकता की मोहर लगवा दूँ । चैत्यवासी द्रोणाचार्य उदारमना थे । वे उस समय प्रधान मुकुट स्वरूप थे। टीका संशोधन का कार्य द्रोणाचार्य को दिया । उन्होनें महान् सहयोग दिया । 1 आचार्य अभयदेवसूरि और द्रोणाचार्य दोनों परस्पर विरुद्ध परम्परा के होते हुए भी दोनों का एक-दूसरे से धर्मस्नेह था। टीका लेखन में द्रोणाचार्य का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है | स्वयं अभयदेवसूरिजीने अपनी टीका ग्रंथों के अन्त में द्रोणाचार्य का साभार सादर उल्लेख किया है । ४८ पाटण में जिनेश्वरसूरि द्वारा पवित्रित करडिहट्टी में निवास किया । प्रायः सं. ११२० से ११२८ तक में नव अंग की टीका लिखी थी । ४९ आपने ६०,००० श्लोक प्रमाण साहित्य-रचना की। इन टीकाओं के अतिरिक्त आपने हरिभद्र के “पंचासक" पर सं. १९२४ में धोलका (गुजरात) में टीका लिखी थी । आपने नव अंग सूत्रों की सुविशद संस्कृत टीकाएँ बनाई। आपकी नवअंगकी टीकाएँ आगम-संरक्षण के लिए अमृततुल्य सिद्ध हुई है। ४८. ४९. तथा सम्भाव्य सिद्धान्ताद, बोध्यं मध्यस्थयाधिया । द्रोणाचार्या दिभिः प्राज्ञैरनेकैरादृतं यतः ॥ (स्थानागवृत्ति, प्रशस्ति ६, पृष्ठ ६०० ) (क) खर. युगप्रधानाचार्यगुर्वावलि- जिनविजयजी - ७. (ख) वल्लभ-भारती - महो. विनयसागरजी- ३१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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