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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
मानी जाती है । यह कृति विशद रूप में एक उपन्यास के रूप में अथवा कथा-कोष प्रकरण रूप में थी । इसमें भिन्न-भिन्न विषयों पर अलग-अलग कहानियों का संग्रह
था।
जिनेश्वरसूरि और भाई बुद्धिसागर जी के उपदेशों ने गुजरात तथा अन्य प्रान्तों में जन-जन को प्रभावित किया है।
आचार्य बुद्धिसागरसूरि व्याकरण-क्षेत्र के अनन्य विद्वान थे । श्वेताम्बर आचार्यो में सर्वप्रथम व्याकरणग्रंथ की रचना करने वाले यही आचार्य है। आपका "पंचग्रंथी" संस्कृत व्याकरण का महत्वपूर्ण ग्रंथ है । इसके अन्य नाम “बुद्धिसागर - व्याकरण" और “शब्दलक्ष्म” है। इसकी रचना जाबालिपुर में वि.सं. १०८० में हुई ।
दोनों आचार्यों ने जैन दर्शन और व्याकरण साहित्य की जो अभूतपूर्व वृद्धि की है, वह साहित्य संसार के लिए संस्मरणीय है
आचार्य जिनेश्वरसूरि का शिष्य-समुदाय भी अति- विशाल था । जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, धनेश्वरसूरि, हरिभद्रसूरि, प्रसन्नचन्द्र, धर्मदेव गणि, सहदेवगणि, सुमतिगणि, आदि उनके अनेक विद्वान शिष्य थे ।
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जिनेश्वरसूरि का स्वर्गवास कब और कहाँ हुआ यह निश्चित नहीं है । वि.सं. ११०८ में आप द्वारा रचित कथाकोष - प्रकरण की वृत्ति प्राप्त है । अतः इसके बाद ही आप नश्वर देह छोड़ चुके हो ऐसा अनुमान है। तदनन्तर आप देवलोक में पधार गये । " आ. जिनचन्द्रसूरि आचार्य जिनेश्वरसूरिजी के पट्ट पर जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरिजी के बृहद गुरू भ्राता, बिराजमान हुए। आप सब शास्त्रों में पारंगत थे । आपने ८००० श्लोक प्रमाणवाले "संवेगरंगशाला” नामक महान ग्रंथ की वि. सं. ११२५ में रचना की थी। यह ग्रंथ भव्यजीवों के लिए मोक्षरूपी महल का सोपान है । आपका मन संवेग में रंगा हुआ था, जैसा कि संवेगरंगशाला नामक ग्रंथ से विदित होता है । शांतरस का बड़ा ही सुंदर प्रभावोत्पादक वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। जिनचन्द्रसूरिजी भी जैनधर्म का यथार्थ प्रकाश फैलाकर देवगति को प्राप्त हुए ।
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खर. युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि-५.
(क) वल्लभ-भारती - २९
(ख) कथाकोष - प्रकरण- - जिनविजयजी - ४३.
खर. युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि-पृ.६
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