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________________ प्रकरण-५ : उपसंहार भारतवर्ष एक धर्म प्रधान देश है। प्राचीनकाल से विभिन्न देशों से नाना प्रकार के धर्म-जाति का आगमन हुआ। उन सबका भारतीय धर्म परम्परा एवं संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस प्रकार धार्मिक दृष्टि से भी भारत की अनेकता में एकता का दर्शन होता है। भारतीय साहित्य और संस्कृति की आत्मा सन्त तत्त्व एवं सन्त परम्परा है। सन्त परम्परा के द्वारा सांसारिक भव्यात्माओं को सर्वतोमुखी विकास का सुन्दर ज्ञान मिलता है। यह परम्परा ऐसी परम्परा है जो संसार से संलग्न होकर भी अलिप्त अवस्था के माध्यम से स्वार्थ मूलक वृत्तियों को जीवन से निकाल करके जनजीवन के समुन्नयन के लिए समत्व की साधना को सर्वोपरि बनाती हैं। संतों की प्रेरणाप्रदायक वाणी ओज परिपूर्ण व्यक्तित्व आन्तरिक सौन्दर्य को उद्बोधित करने वाली साधना ही मानवोत्कर्ष का सुन्दर मार्ग है ! इनका क्षण-प्रतिक्षण लोक कल्याण एवं पावनता में ही व्यतीत होता है । शाब्दिक बल कोई बल नहीं है। जब तक कि उसके पीछे दीर्घ व ज्ञानमूलक अनुभव की सुदृढ़ परम्परा न हो। आत्मीय विभूतियों के सुस्मरण से हृदय में ऐसी उर्मियां उत्पन्न होती हैं जिसके द्वारा व्यक्तिमूलक व राष्ट्रीय चरित्र का विकास होता है । व्यक्ति के वास्तविक विकास पर ही राष्ट्र का नैतिक विकास निर्भर है। वाणी, विचार और व्यवहार का वास्तविक ज्ञान तो मात्र सन्तों से ही प्राप्त होना सम्भव है। दादासाहब आचार्यश्री जिनदत्तसूरिजी १२ वीं शताब्दी के ऐसे महापुरुष थे जो बुद्धि में प्रखर एवं तेजस्वी थे, जिसके कारण विद्वत् वृन्द उनसे लोहा मानते थे। किसी भी राष्ट्र की वास्तविक धन-समृद्धि उस देश की सन्त परम्परा है। इस संत-समृद्धि के द्वारा ही देश का मूल्यांकन किया जाता है क्योंकि देश की संस्कृति और अध्यात्म सन्तों के अथक परिश्रम का ही परिणाम होता है। आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी उपर्युक्त परम्परा के एक ऐसे ही उदारचेता और व्यक्तित्व-सम्पन्न पुरुष थे। तत्कालीन सन्तों में, साहित्यकारों एवं तत्त्वविदों में आचार्यश्री का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा है। उनके जीवन का मूल मंत्र ही क्रान्ति थी। तत्कालीन विकृति मूलक परम्पराओं का परिष्कार कर सांस्कृतिक सूत्र में आबद्ध कर जैन धर्म एवं सम्पूर्ण मुनि समाज पर आयी हुई विपत्तियों का उन्होने कुशलता पूर्वक सामना किया। श्री जिनदत्तसूरिजी सत्याश्रित-खरतरगच्छीय परम्पराओं के एक ऐसे सुदृढ़ स्तम्भ थे, जिन्होने अपने व्यक्तित्व के बल पर,अपनी साधना के बल-बूते पर और प्रकाण्ड पांडित्य के बल पर समाज में जो श्रद्धा का स्थान प्राप्त किया है वह आज भी अमर एवं अनुकरणीय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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