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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान करके दुःखी हो रहे थे। संसारी पुरुष उपदेशों के श्रवण एवं आचरण से दूर भागते थे। साधु लोग भी साधुता के नाम पर कलंक बन चुके थे। बाह्याडम्बर से समाज में चारों
ओर व्यभिचारियों जैसा निन्दनीय कार्य करने लग गये थे। एक दूसरे के दुःख से दुःखी न होकर सुख का अनुभव करते थे। दूसरों की उन्नति में हमेशा बाधक स्वरूप बनने लगे थे।
जिनालयों एवं चैत्यों में शुद्ध एवं वास्तविक मुनियों का स्थान नाममात्र हो चुका था। समाज में पारिवारिक समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। लोग छोटेबड़े, ऊँच-नीच के मान सम्मान का भी ध्यान नहीं रखते थे। परिणामस्वरूप समाज एवं देश की स्थिति अजीबोगरीब हो चुकी थी।
ऐसी दयनीय हालत को देखकर “युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरिजी' से न रहा गया। उन्होंने लोककल्याण के लिए देश के उत्थान में बड़ा भारी कार्य जो समाजसुधार का था उसे प्रारम्भ किया और कालस्वरूपकुलक' की रचना करके उसके उपदेशों के द्वारा समाज को चेतनायुक्त करके जाग्रत किया।
विषयवस्तु को विस्तृत रूप में निम्न प्रकार देखा जा सकता है -
आचार्यश्री जिनदत्तसूरिजी प्रथम गाथा में अपने गुरु श्री जिनवल्लभसूरिजी का वर्णन करते हुए लिखते हैं
पणमवि वद्धमाणु जिणवल्लहु परमप्पय लच्छिहिं जिणवल्लहु। सुगुरुवएसु देमि हउ भव्वह
सुक्खह कारणु होइ जु सव्वह ॥१॥ भगवान महावीर को प्रणाम करके और गुरु श्री जिनवल्लभ को प्रणाम करके उनके उपदेश जो जनता के लिए सुखस्वरूप हैं, उसे जनता तक पहुँचाता हूँ।
प्रस्तुत गाथा में आचार्यश्री ने गुरुपरम्परा को विशेष मत्त्त्व दिया है, एवं विघातक तत्त्वों को दूर करने के लिए महावीर भगवान को प्रणाम करके फिर गुरु को प्रणाम करते हैं। तत्कालीन दुःखी जनता के दुःख को दूर करने के लिए उनके उपदेशों का प्रचार-प्रसार करते हैं।
द्वितीय गाथा के द्वारा उनके ज्योतिषी होने का भी प्रमाण मिलता है। तीसरी, चौथी, पाँचवी और छट्ठी गाया में समाज में होनेवाले प्रभाव का उल्लेखादि निम्न प्रकार
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