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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान कर्ण का पुत्र सिद्धराज जयसिंह ई.स. १०९४ (वि.सं.११५०) में शासक बना । उस के नाम के साथ परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर आदि महाबिरुद देने में आते हैं। १७
ई.स. १११४ (वि.सं.११७०) में जयसिंह ने सोरठ जीता इसी कारण सिद्धराज जयसिंह नाम से प्रसिद्ध हुआ। १८
सिद्धराज जयसिंह ने ४७ वर्ष तक राज्य किया। वह महान् रणदक्ष शासक था, जिसने कच्छ, काठियावाड़, गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान में कोटा, बांसवाड़ा, ग्वालियर, जोधपुर, जयपुर आदि प्रान्तो पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया था।
जिसके लिए मूलराज, भीम आदि संघर्ष करते हुए असफल रहे थे, वही जयसिंह को सुलभ हुआ। उसने एक सशक्त और संगठित साम्राज्य की स्थापना की।
जयसिंह ने १२ वर्ष तक मालवा के राजा के साथ युद्ध किया, अन्त में यशोवर्मन को बन्दी बनाया और अवन्ती देश पर अधिकार किया। जयसिंह की “अवन्तीनाथ" उपाधी भी यही सिद्ध करती है । २०
जयसिंह सिद्धराज के बाद ई.सन्. ११४३ में कुमारपाल राज्य सिंहासन पर बैठा, उस समय उसकी अवस्था ५० वर्ष की थी। २' उसकी प्रौढ अवस्था से यह लाभ हुआ कि कुमारपाल ने अपने अनुभव और पुरुषार्थ द्वारा राज्य की सुदृढ व्यवस्था की। सन् ११४३ से ११७२ तक शासनभार उसने संभाला। कुमारपालने शाकंभरी (सांभर) के चाहमान (चौहान) अर्णोराज पर विजय प्राप्त की। इससे उनकी यशगाथा फैली। २२ कुमारपाल के उदयन, आम्रभट्ट, कुमरसिंह, पृथ्वीपाल आदि अनेक मंत्री थे। २३ इन में उदयन विशिष्ट प्रतिभावान जैन मंत्री था।
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गुजरातनो प्राचीन इतिहास, पृ.१९१-१९२ वहीं, पृ.१९३ राजपूत राजवंश-डॉ. अवधबिहारीलाल अवस्थी, पृ.३२५-३२६ वही, पृ.३२६ गुजरात नो प्राचीन इतिहास, पृ.१९९ वही, पृ.२०० वही, पृ.२०३
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