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बोधक है।
(१) रास - गरबा - जो शुद्ध नृत्यगीतमय रचना है ।
(२) रास - रहस - जो नाट्यरूपक है और
(३) रासो काव्यात्मक रासग्रन्थ जो श्रव्यकाव्य और साहित्यिक रूप का
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क- रास की उत्पत्ति रासक आदि नृत्य गीतादि से हुई ।
उपरोक्त वर्णन के बाद उपरोक्त तीनों प्रकार के रास के विकास पर गौर करें । डा. दशरथ ओझा के अनुसार दशरूपक में नृत्य के साथ भेदों का नामोल्लेख है किन्तु उन्हें कहीं भी उपरूपक की संज्ञा नहीं दी गयी हैं । इसी प्रकार अभिनवभारती में रासक का उल्लेख है किन्तु उसे उपरूपक नहीं माना गया है डा. दशरथ शर्मा के अनुसार रास का तीसरा अंग अर्थात् अभिनय शनैः शनैः विकसित होकर रासक के नाम उपरूपक में परिवर्तित हो गया, यह रास का आदिम नही अपितु विकसित रूप मात्र था । नृत्य और गान उसके आवश्यक अंग थे । १५
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रास अथवा लास्य केवल रसपूर्ण गीत ही नहीं, इसमें नृत्य, गीत और वाद्य का समावेश होता है । अतः इन तीनों का मधुर त्रिवेणी संगम ही रास के नाम से विख्यात हुआ।
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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
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प्रारम्भ में अभिनय के उद्देश्य से लघु रास रचे गये । कालान्तर में धार्मिक उपदेश की प्रधानता से अभिनय तत्त्व लुप्त होता गया। रास मात्र श्राव्य काव्य बन गये । रास नृत्य के भेद के कारण इस गेय रूपक को भी दो भागों में विभक्त किया गया
(१) ताला रास । (२) लकुट रास ।
(१) तालारास - ताला रास अर्थात् वृत्ताकार घूमते हुए तालियों से ताल देकर संगीत एवं पदचाप के साथ नर्तन किया जाय उसे ताला रास कहा जाता था । जैन सम्प्रदाय में सूरिजी के विशेष पदार्पण और पट्टाभिषेक पर ताला रास खेला जाता था । (२) लकुट रास- लकुट रास अर्थात् छोटे-छोटे डन्डों को हाथ में लेकर परस्पर एक दूसरे के डंडो पर ताल देना ।
रास और रासान्वयी काव्य- डा. दशरथ ओझा, पृ. ३ साहित्य संदेश - भाग - १३ - अंक - १, डा. दशरथ शर्मा,
रास और रासान्वयी काव्य - पृ.४५
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पृ. १४
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