________________
युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
१६१
संस्कृत भाषा में मूल धातु रस्' है । जिसका अर्थ है “गर्जन करना' तत्पश्चात् प्रशंसा करना । गर्जन करने के परिणाम से मेघ से प्रस्फुरित प्रवाही जल के अर्थ द्वारा यावत् प्रवाही पदार्थों का वाचक रस' शब्द बना। तदुपरान्त आस्वाद वाचक
और इसमें से कविता के रसो में परिणित हुआ। इस धातु से संस्कृत में एक रस् धातु चिल्लाना के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इस धातु से “रास' शब्द बना ।११
(९) अन्यत्र श्री के. का. शास्त्री के मतानुसार
“रास अथवा रासो संज्ञा सुनते ही किसी गेय प्रकार की धर्मचरित मूलक रचना रास के रूप में और ऐतिह्ममूलक प्रबन्धात्मक रचना रासा के रूप में कही जा सकती है।'
व्युत्पत्ति की दृष्टि से-के .का. शास्त्री के अनुसार- “रास” यह तो रास शब्द के प्रथमा विभक्ति एक वचन का अपभ्रंशकालीन रूपमात्र है। “रासो' यह अन्त स्वरवाला “रासक:-रासओ-अप. रासउ"द्वारा निष्पन्न रूप हैं। १२
इस प्रकार के. का. शास्त्री की दोनों परिभाषाओं का अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि
हिन्दी साहित्यकोश के अनुसार रासो नाम क कृतियाँ दो प्रकार की हैं। एक तो गीत नृत्य परक हो। और दूसरी छन्द वैविध्य परक हो। नृत्यगीतपरक धारा पश्चिमी राजस्थान तथा गुजरात में विशेष रूप से समृद्ध हुई और छन्दवैविध्यपरक धारा पूर्वी राजस्थान तथा शेष हिन्दी प्रवेश में अधिक विकसित हुई । १३३
इन सब उपरोक्त उल्लेखों के आधार पर कहा जा सकता है किअ.. आरम्भ काल में रासक नृत्यगीत परक रचना थी। ब- कालान्तर में उसके निम्न तीनों रूपों का विकास हुआ।
१२.
गुजराती साहित्य, रेखादर्शन-श्री के. का. शास्त्री, पृ.२८ “आपणा कवियो" खण्ड-१, श्री के. का. शास्त्री, पृ.१४६ पर पादटीप-१. हिन्दी साहित्य कोश, पृ. ६५६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org