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________________ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान स्वाध्याय अंधकारपूर्ण जीवनपथ को आलोकित करने के लिये जगमगाता दीपक के समान है। स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है । ८ महानिशीथसूत्र में कहा है :स्वाध्याय के पाँच प्रकार हैं : वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा । ये पाँच भेद है । ७९ तप के बारह भेद में दसवाँ भेद स्वाध्याय बताया है। स्वाध्याय करते समय उपरोक्त कालवेला के समय स्वाध्याय न करें । स्वाध्याय से कर्मरूपी रोग नष्ट होते हैं और आत्मा पूर्ण स्वस्थ तथा शुद्ध बनती है । गाथा १०७ में उपवासविधि बतायी थी, उस विधि अनुसार कोई उपवास करने में अशक्त हो तो दूसरे ढंग से उपवासपूर्ति कर सकता है क्या ? ग्रंथकार कहते है कि जो शुद्धात्मा उपवास करने में अशक्त है तो चार एकासनों से, अथवा तीन नीवियों से अथवा दो आयंबिलों से अथवा बारह पुरिमड्डों से एक उपवास होता है। अगर ये भी नहीं कर सके कोई रोग आदि के कारण तो दो हजार श्लोक प्रमाण स्वाध्याय करके उपवास पूर्ण करना चाहिये । महानिशीथ सूत्र में भी कहा है कि- जो शुद्धात्मा आलोचना निमित्त उपवास नहीं कर सकता है तो ४५ नवकारसी करने से, २५ पोरसी करने से, १२ पुरिमड्ड करने से, दस अव से, चार एकासना करने से, दो आंबिल से, तीन निवीसे या एक शुद्ध निर्दोष आयंबिल करने से एक उपवास की गिनती होती है । ८० आचार्यश्रीने हर प्रश्न का समाधान शास्त्रों का आधार लेकर दिया है ऐसा प्रश्नोत्तरों से प्रतीत होता है। अतः आप उस समय में आगमों के कितने बड़े ज्ञाता थे यह हमें आपकी कृतियों से जानने को मिलता है । ७८. ७९. ८०. १४५ महानिशीथसूत्र-गुर्जरछाया, सम्पा. मुनि दीपरत्नसागरजी ३/६०८, पृ. २७८ प्रवचन सारोद्धार-गृहस्थप्रतिक्रमण - ६, पृष्ठ- ८० ता गोयमाणं पणयालाए नमोक्कार सहियाणं चउत्थं चउवीसाए पोरुसीहिं बारसहिं पुरिमइदेहिं दसहिं अवढेहिं तिहिं निव्वीइएहिं चउहिं एगट्टाणगेहिं दोहिं आयंबिलेहिं एगेणं सुत्थायंबिलेणं ॥ महानिसीहं गुर्जरछाया सम्पा. मुनि दीपरत्नसागरजी अध्ययन ३, गाथा - ६०२, पृ. २७७ Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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