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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान निविगय में विकार-वर्द्धक उत्कृष्ट द्रव्यों का त्याग करके, एक समय भोजन करे उसे निविगय कहा है।
उत्कृष्ट द्रव्य का लक्षण बताते है:
दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और तली हुई चीजें ये छ: द्रव्य को कई लोग विगय भी कहते है। अतः इन उत्कृष्ट द्रव्य का त्याग निविगय में होता है। आयंबिल :
आयंबिल तप करनेवाले को उबला एक अन्न और अचित्त पानी अर्थात् उबला पानी ही कल्पता है।आयंबिल में दो द्रव्य ग्रहण करने की विधि बतायी है। दंतशुद्धि के लिये सीली (तीनखा)का उपयोग कर सकते हैं। उपवास विधि :
उपवास में असण, खादिम और स्वादिम का त्याग, केवल अचित्त पानी पी सकते है। ऐसी विधि से उपवास करनेवाला परम पद-मोक्ष पद प्राप्त करता है। उपरोक्त आलोचना तप विधि बतायी गयी, इन सभी आलोचनातप में एकासन, आयंबिल, निविगय, उपवास आदि में रात्री के समय जलपान नहीं करना चाहिये। (९५ से १०८)
इस प्रकार उपरोक्त आलोचना तप विधि प्रकार बताये हैं। उन सभी से यह स्पष्ट है कि आलोचना तप वही साधक ग्रहण करता है, जिसका हृदय सरल हो और जिसमें दोषमुक्त होने की भावना हो । दोष चाहे कितना ही बड़ा हो या छोटा उसको दोष से बचाया जा सकता है, क्योंकि मूलतः आत्मा दोषी नहीं है । दोष प्रमाद व कषाय के कारण होता है। इसलिये दोषमुक्त होने के लिये उक्त आलोचना तप विधि की आवश्यकता
आलोचना तप विधि के पश्चात् आगे प्रश्न यह है कि कोई शुद्धात्मा अपने पापों की आलोचना के लिये स्वाध्याय करता है, तो वह स्वाध्याय किस प्रकार और कब करना चाहिये?
आचार्यश्री कहते है कि जो शुद्धात्मा अपने पापों की आलोचना-विशुद्धि करने को चाहता है वह चार कालवेला को छोड़कर स्वाध्याय करें। चैत्र और आसोज की शुक्लपक्ष की सप्तमी, अष्टमी और नवमी इन तीन तिथियों में भी उपदेशमाला, पंचाशक, कर्मविपाक आदि ग्रंथों को नहीं पढ़ना चाहिये । (११०-११८)
स्वाध्याय मन को विशुद्ध बनाने का एक श्रेष्ठ प्रयास है। अपना अपने ही भीतर अध्ययन, आत्मचिंतन, मनन ही स्वाध्याय है।
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