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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
१२५ स्थानांगसूत्र में मांसाहार करनेवालों को नरकगामी बताया है। ४४
आचार्य हेमचन्द्र ने स्पष्ट रूप से कहा- पंगुपन, कोढ़ीपन, लूलापन आदि हिंसा के ही फल हैं।
आचार्य मनु ने कहा- मांस का अर्थ ही है, जिसका मैं मांस खा रहा हूँ वह अगले जन्म में मुझे खाएगा। मांस शब्द को पृथक्-पृथक् लिखने से “मां” “स' याने 'मुझे खाएगा' इस प्रकार का अर्थ होता है । ४६
मांसाहार अपवित्र है । सभी धर्म प्रवर्तको ने मांसाहार को निन्दनीय और हिंसाजनक माना है। मांसाहार धार्मिक व स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिप्रद है। मांसाहार घोर तामसिक आहार है, जो जीवन में अनेक विकृतियाँ उत्पन्न करता है, इसीलिए मांस की परिगणना सप्त व्यसनों में की गई है।
मद्य
मद्य(मदिरा-शराब)यह एक ऐसा पदार्थ है जो किसी भी दृष्टि से पेय नहीं है, वह सड़ा हुआ पदार्थ है। जितने भी पेय पदार्थ, जिनमें मादकता है, वे विवेकबुद्धि पर परदा डाल देते हैं । ये सभी मद्य के अन्तर्गत आते हैं। मदिरापान सर्व दोषों तथा सर्व
आपत्तियों का कारण है, अतः सर्वथा त्याग देना चाहिये। आचार्य मनु ने कहा- मदिरा किसी मानव के पीने योग्य नहीं है । ४७
कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा- आग की नन्ही-सी चिनगारी विराटकाय घास के ढेर को नष्ट कर देती है वैसे ही मदिरापान से विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, शौच, क्षमा आदि सभी सद् गुण नष्ट हो जाते हैं। ४८ अतः सभी धर्मो में मदिरापान को पाप का मूल माना है।
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"चउहि ठाणेहिं जीवा नेरइयत्ताए, कम्म पकरेति तं जहा- महाभयाते, महापरिग्गहयाते, पंचेदियवहेणं कुणिमाहारेण ॥" योगशास्त्र-आचार्य हेमचन्द्राचार्य विरचित, संपादक - योगनिष्ठ आचार्य विजयकेशर सूरिश्वरजी म.सा., द्वितीय प्रकाश, गाथा-१९, पृ.१२६ मनुस्मृति-५/५५, पृ.२११ सुरा वै मलमन्नानां, पाप्मा च मलमुच्यते । तस्माद् ब्राह्मण-राजन्यौ वैश्यश्च न सुरां पिबेत् ॥श्री मनुस्मृति-अध्याय ११-९३, पृ.५४० “विवेकः संयमो ज्ञानं, सत्यं शौचं दया क्षमा। मद्यात् प्रलीयते सर्वं, तृणं वह्निकणादिव ।।"(योगशास्त्र-३/५६-हेमचन्द्राचार्य विरचित, संपादक -आचार्य केशरसूरिश्वरजी म.सा.पृष्ठ- १९८)
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