________________
१२२
युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान महानिशीथ सूत्र में कहा है कि :
भगवन ! द्वितीया आदि प्रमुख पंचतिथियों में जीव परभव का आयुष बांधता है, इस कारण से साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका को इन तिथियों में विशेष प्रकार से धर्मानुष्ठान करना चाहिये। २४ ।
तप के द्वारा ही कर्मो की निर्जरा होती है। ३५.
तप शब्द “तप्' धातु से बना है, जिसका अर्थ है “तपना” । तप से अशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं, जल जाते हैं। साधना आराधना से पाप कर्म तप जाते हैं। किसी ने कहा है :- तप से इच्छाओं का निरोध होता है । इच्छाएँ आकाशवत् हैं। उन इच्छाओं को रोकने का कार्य तप करता है। ३६ शास्त्रकारों ने कहा है कि अगर तप करने में शरीर अशक्त है तो छः बाह्य और छ: आभ्यन्तर बारह प्रकार का तप करें। ३७ साधक अपनी शक्ति अनुसार तप करके कर्मो का क्षय करें। .
अब जीव समूह से भरे हुए बाईस अभक्ष्य जो श्रावक के लिये सर्वथा अखाद्य हैं, उनका वर्णन करते हैं :
पंचुंबरि चउविगई, हिम-विस-करगे य सव्व मट्टी य। राइभोयणगं चिय, बहुबीय अणंत संधान ।। १६ ।। घोलवड़ा वाइंगण, अमुणिय नामाणि पुप्फफलयाई। तुच्छफलचलितरसं, वजह वज्जाण बावीसं ॥ १७ ॥
जेउ णं जीवे पाएणं एयासु तिहिसु परभव आयुसं बंधइ । तम्हा समणेण वा समणीए व सावएण वा सावियाए वा विसेसओ धम्माणुट्टाणं कायव्वं ।
(महानिशीथ सूत्र-उद्धृत चर्चर्यादि ग्रंथ, पृ.५९) "तपसा निर्जरा च" तत्त्वार्थसूत्र ३/९/३ “इच्छानिरोधस्तपः” (उद्धृत-देवेन्द्रमुनि शास्त्री, पृष्ठ ५२३) "अणसणमूणोयरिया, वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ ।' २७१ ।। पायच्छित्तं विणओ वेयावत्वं तहेव सज्झाओ । झाणं उस्सग्गो वि अ अभितरो तवो होइ ।। २७२ ।। अर्थ : - अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश, संलीनता ये बाह्य तप हैं। पायश्चित्त, विनय, वैयावत्व, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग ये छः आभ्यन्तर तप हैं। (प्रवचन सारोद्धार-गाथा-२७१ - २७२, पृ.७९)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org