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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन विरक्ति :
यद्यपि बाह्य रुप से महावीर संसारी थे, पर उनका मन तो बचपन से ही विरक्त था। वे विषयसागर में कमलवत् निर्लिप्त भाव से विहार करते थे। उनका मन तो अनन्त सुख की खोज में था। जीवन के अट्ठाईस वर्ष माता-पिता की सेवा में बिताकर उन्होने जीवन के सबसे प्रथम और उत्कृष्ट कर्तव्य का पालन किया। उनके माता-पिता का स्वर्गवास हुआ। तब वे अट्ठाईस वर्ष के थे।
माता-पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर महावीर की गर्भाकालीन प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई। वर्धमान ने अग्रज नन्दीवर्धन से विरक्त होने की अनुमति मांगी । माता-पिता के निधन से वे पहले ही बड़े दुःखित थे। अनुज का यह प्रस्ताव उन्हें ओर कष्ठ देने लगा। अग्रजने वर्धमान से आग्रह किया कि वे अभी संयम ग्रहण नहीं करें। वर्धमान अपने अग्रज का पितातुल्य ही सम्मान करते थे। उनकी आज्ञा का अनादर वर्धमान न कर पाये
और दीक्षा ग्रहण करने का विचार कुछ समय के लिए उन्हें पुनः स्थगित करना पडा। राज परिवार के सम्पन्न वातावरण में रहकर भी वर्धमान योगी-सा जीवन जीने लगे थे। भौतिक सुखों और विषयों के प्रति उनका मन विकर्षित रहता था। वे अद्भूत योगी थे। दो वर्ष से कुछ अधिक काल तक महावीर विरक्त व्रत पालन करते हुए घरमे रहे, वे भूमिशयन करते एवं क्रोधादि से रहित हो एकत्वभाव में लीन रहते थे। दीक्षाग्रहणः
__ भगवान महावीर का च्यवन, गर्भापहरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान-दर्शन प्राप्ति ये पांच मांगलिक प्रसंग हस्तोत्तर नक्षत्र में हुए थे। वर्धमानकुमार को प्रतीक्षा की यह दो वर्ष की अवधि अत्यंत दीर्घ लगी। अन्ततः लोकान्तिक देवों ने उनसे धर्म प्रवर्तन की प्रार्थना की तो वे वर्षीदान में प्रवृत्त हुए और इस के सम्पन्न होजाने पर उन्होंने महाभिनिष्क्रमण किया। वर्धमान गृहत्याग कर चन्द्रप्रभा शिविका में आरुढ हो ज्ञातखण्ड उद्यान में पधारे। वहां वस्त्रालंकारो का त्यागकर उन्होने पंचमुष्टि केश लुंचन किया और १. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो पासवच्चिज्जा. समणोवासगा यावि होत्था।
...अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णा... महाविदेहवासे चरिमेणं 1- आव. चू.१, भा.पृ.२४९ २. (क) आचा. प्र. टीका, पृ.२७५ (ख) बम्भयारी अमंजमवाव/रहितो ठिओ, णय फासुगेण विण्हातो, हत्थापादसोयणं
तु फासुगेण आयमणं च । णय बंधवेहि वि अतिणेहं कत्तव्वं । आव.चू.१,
पृ.२४९
३.
स्थानांग - पंचमस्थान, प्रथम उद्देश्य, पृ.४८०
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