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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
करते रहते हैं । अब तो तपस्या उस चरम अवस्था तक पहुँच गयी हैं कि ६-६ महिने तक आहार की भी सुध नहीं रहती बिहार करते-करते प्रभु कौशाम्बी नगरी पहुँचते हैं और गोचरी से पूर्व बड़ा ही कठिन अभिग्रह लेते हैं । वे उसी के हाथ से आहार लगें जो लड़की राजा की कन्या हो, सिर मुड़ा हुआ हो, जिसको तीन उपवास हो गये है, पांव में बेड़ी पड़ी हो, आँखों में आँसू हो, मुख पर उदासी हो, जिसका एक पाँव देहरी के बाहर हो, और जो सूप में उड़द के बाकुले लेकर खड़ी हो। बिहार करते करते इसी अभिग्रह साथ वे आगे बढते हैं और चंदनबाला के द्वारे से जाते समय उसे ऐसी ही स्थिति में पाते हैं और उस आहार का ग्रहण करते हैं जिससे पंच दिव्य प्रगट होते हैं और चंदनबाला पुनः राजकुमारी का सौन्दर्य प्राप्त करती है और बाद में उनकी प्रथम शिष्या बनती हैं। कायोत्सर्ग में तपस्यारत महावीर के कानों में कीले ठोंक दिये जाते हैं लेकिन प्रभु विचलित नहीं होते इस दृढ तपस्या से उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है। महावीर की तपस्याकाल. साढे बारह वर्ष का रहा । केवल ज्ञानी प्रभु पावापुर पधारते हैं जहाँ देव उनके लिए समोवशरण की रचना करते हैं ।
समवशरण अर्थात् धर्म-र - सभा में संसार के समस्त ज्ञान के ज्ञाता जब इस धर्म सभा में बिराजते हैं तब चराचर के मनुष्य, देव, पशु-पक्षी सभी उपस्थित होते हैं। अपने पारस्परिक वैरभाव को भूलकर वे पूर्ण मैत्री के साथ सभा में बैठते हैं । प्रभु की दिव्य कल्याणकारी वाणी को अपनी-अपनी भाषा में समझकर बोध ग्रहण करते हैं । वे आत्मकल्याण का पथ प्राप्त करते हैं । समवशरण में अष्ट प्रतिहार्य या अतिशय प्रगट होते हैं । प्रभु की दिव्य वाणी का सरल अर्थ उनके शिष्य जो गणधर कहलाते थे वे करते थे । ये गणधर ज्ञानी ब्राह्मण होते थे । तत्कालीन ज्ञानी, वेदपाठी ब्राह्मण आते थे शास्त्रार्थ प्रभु को पराजित करने पर, समवशरण के निकट पहुँचते ही उनका ज्ञान गर्व चूर-चूर
ता था । और वे प्रभु के शिष्य बनने का सौभाग्य प्राप्त कर I
प्रस्तुत कृति में भगवान के ११ गणधर इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायूभूति, अव्यक्त, सुधर्म, मण्डित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्रात, मैतार्य एवं प्रभास के भगवान के सम्पर्क में आने का वर्णन हैं। साथ ही प्रभु द्वारा उन्हें जीव, पुद्गल, तत्व, संसार रचना, स्याद्वाद, कर्मवाद, जीव - आत्मा का भिन्नत्व त्रिरत्न, आदि दर्शन का बोध दिया गया। प्रभु के दर्शनतर्क एवं सत्य को समझकर ये सभी उनके शिष्य बनते गये । दीक्षित होकर परिव्राजक बनते गये। इस गणधरवाद के अन्तर्गत कवि मुनिश्री ने जैन दर्शन के विविध मौलिक पक्षों की चर्चा, व्याख्यायें प्रस्तुत की हैं जो अत्यन्त ज्ञानवर्धक हैं ।
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