SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन २१ अपने प्रियतम को किसी न किसी प्रकार प्राप्त करना चाहती है । प्रकृति के कण-कण में उसे खोजने का प्रयास करती है। 'वैशाली परिवर्तन' सर्ग में भगवान के पदार्पण से जड़ व चेतन प्रकृति में परिवर्तन, नगरजनों में उल्लास, पत्नी यशोदा और लड़की प्रियदर्शना का वंदन हेतु भगवान के पास आना आदि प्रसंगो का चित्रण है। 'जन कल्याक ज्योति' सर्ग में भगवान का विविध स्थानों में भ्रमण करते हुए जनता का कल्याण करने का वर्णन है। “भारत भ्रमण सर्ग” में कविने भगवान की वह वाणी जो जगत के कल्याण हेतु गूंज रही थी, जिस अद्भूत एवं जादू भरी वाणी से भारत जाग्रत हो उठा था। उसकी चर्चा की है । 'चतुर्विध संघ व्यवस्था' सर्ग में भगवानने चतुर्विध संघ की स्थापना करने में जो प्रयास किया है वह पूर्णतः सफल हुआ है इस में संघ की स्थापना, एकता का जो वातावरण बना उसका उत्सव हुआ है। 'पावापुर निर्माण' सर्ग में कविने भगवान के निर्वाण समय का करूण व सजीव चित्रण खींचा है । 'तीर्थंकर चिन्तन' सर्ग में कविने भगवान द्वारा प्रतिपादित तात्विक जैन ज्ञान- दर्शन का स्पष्ट रूप से विवेचन किया है। अंतमें कविने भावांजलि द्वारा अपने भावों को व्यक्त किया है । कवि का भारतभूमि के प्रति कितना अनन्य प्रेम है वह कविता के अध्ययन से ही ज्ञात हो सकता है। प्रस्तुत काव्य लिखने का कवि का मूल उद्देश्य जन कल्याण रहा है। महावीर की वाणी जन-जन तक पहुँचाकर देश का उत्थान हो । संसार में विषमताएँ, दुराचार, अहिंसा आदि का विस्तार बढ़ चूका है। उन सभी बुराईओं को दूर करने के लिए काव्य के माध्यम से भगवान का अमर संदेश विश्व में फैलाकर शांति का राज्य स्थापित हो, यह कवि का मूल उद्देश्य छिपा हुआ है। भाषा-शैली की दृष्टि से यह महावीर सफल काव्य है । सर्ग के अनुपात में अवश्य कहीं कहीं बेमेल है। जैसे 'तीर्थंकर चिन्तन' सर्ग कवि विस्तृत किया है जो संपूर्ण दार्शनिक तत्वों से सभर लेने से पाठक के हृदय पर शुष्कता भी पैदा हो सकती है। फिर भी काव्य के अंदर गहराई से डुबकी लगाने पर ही हमें उज्ज्वल मोती प्राप्त हो सकते हैं। साधना, ध्यान, तपस्या, सेवा और परोपकार द्वारा हम शुभ्र मणियों को प्राप्त कर सकते हैं । *** चरम तीर्थंकर भगवान महावीर - आचार्य श्रीमद् विद्याचंद्रसूरि चरम तीर्थंकर श्री महावीर श्रीमद आचार्य विजय विद्याचन्द्र सूरीजी द्वारा रचित सचित्र काव्य है। कृति भगवान महावीर क्रे २५०० वें निर्वाणोत्सव के अवसर पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy