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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
२४७ वंशस्थ :
सु-आनना सुन्दर-चन्द्र कान्त-सी सुकेशिनी नील शिखा-समान थी, सु-पाद से आरूण पद्म-राग-सी सु-शोभिता रत्नमयी सुभीरु थी।
*** विलोकती मंजु मृगी-समान ही बनी मराली सम चल-युक्त सी, सदा पिकी-सी कल कूजती हुई, निवेश को थी रचती अरण्य-सीर
. *** कविने राजा सिद्धार्थ के यश गाथा का “वंशस्थ' छन्द में सुंदर वर्णन किया
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यही यशस्वी हरिवंश व्योम के, दिनेश सिद्धार्थ प्रदिप्तमान थे, प्रसिद्ध वे भूपति सार्वभौम थे, सतोगुणी थे, जिन-धर्म-दूत थे।
*** त्रिशलादेवी को रात्रि में आये हुए स्वप्न के पश्चात् प्रभात कालीन वातावरण का चित्रण वंशस्थ छन्द में देखिए -
विहंग ऐसे बहु मोदमें सने प्रभात में पूर्ण प्रसन्न ज्यों हुये, समीर भी अंबर की मलीनता, बुहारता था जल सींच ओसका।।
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"वर्द्धमान" : कवि अनूपशर्मा, सर्ग-१, श्लो. ५५, पृ.४९ वही, श्लो. ६२, पृ.५० वही, श्लो.२८, पृ.४२ वही,सर्ग-४., श्लो. ३, पृ.११७
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