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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन जो है लातों देव भूत ! बातों से नहीं मानता है।
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“क्रोध पाप का मूल है", "कागज की नाँव चलना', “बिजली की तरह उड़ना', “पक्की स्याही, सिंदुर होना'', "सिर पर व्रज लगाना', “घर का अंधकार भगाना', "चादर को दाग लगना", "छिछले पानी में नाव का न चलना', “जल फूंक देना”, “संकट आना”, “मद में उछलना", "डस लेना", "जिसने जितने बोया जोता", “धर्म न देना”, “जीवन को संगीत मिलना", "उथल-पुथल होना”, “आग फँसका, बैर होना”, “सत्संग के रंग रंगना', "कदम-कदम पर शूल होना", "जिह्वा पर सरस्वती होना'',
“बार बार फूंकारना", सूक्तियाँ:
सूक्तियाँ वैसे सुविचार या उपदेशात्मक वाक्यांश ही होते हैं। इनमें जैसे युग के अनुभव का निचोड़, मार्गदर्शन के भाव एवं उत्तम ज्ञान-चरित्र के भाव भरे होते हैं। ये अधिकांशतः नीतिवाक्य होते हैं। इन प्रबंधों में इनका प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ
तरह तरह के लोग हैं, तरह तरह के भाव। छिछले पानी में कभी, नहीं तैरती नाव ॥२
*** मित्र रेत पर चिन रहा, जीवन की दीवार।
१. २.
“वीरायण" : कवि मित्रजी, “प्यास और अंधेरा', सर्ग-७, पृ.१८७ वही, “जन्म जन्म के दीप", सर्ग-६, पृ.१३७
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