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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
दीक्षा के बाद का वातावरण :
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४.
पुष्पों की वर्षा लगे देव नभ से करने
जय के निनाद से लगे
केवलज्ञान के समय का अनुकूल वातावरण :
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सकल अंबर भरने
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दुन्दुभियों के स्वर में गुञ्जित अन्तरिक्ष था, मधुर मृदुलस्वर फूट रहे थे दशों दिशाओं में । रंग बिरंग रत्न, और फूलों की वर्षा, अप्सरियाँ करती फिरती थीं दशों दिशामें ।
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स्फटिक मणि सम देह हुई ही गए घातियाँ कर्म नाश, महती थी मन्द सुगन्धवायु चहुँ दिशि में फैल गई सुवास । शची पतिका आसन हिला, तभी सुर वाद्य बज उठे अनायास तब इन्द्र अवधि से जान गया, प्रभु अन्तर में फैला प्रकाश । ३
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केवलज्ञान के पश्चात् कवियों ने देवकृत समवशरण के अतिशय की महिमा अद्भूत वर्णन काव्यों में प्रस्तुत किया है
फिर रची मध्य में गंध कुटी जिस पर सिंहासन रत्नमयी,
था जिस पर शतदल कमल एक जिसकी शोभा न जाय कही, उससे भी चार अंगुल उपर आसन थी अधर प्रभुजी का, सिर पर थे तीन छत्र मणिमय भामंडल की शोभानो की,
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" तीर्थंकर महावीर " : कवि गुप्तजी, सर्ग-३,
पृ. १२५
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'श्रमण भगवान महावीर” : कवि योधेयजी, सोपान- ७, पृ. २८८ " त्रिशलानन्दन महावीर” : कवि हजारीलाल, पृ. ६७
वही, पृ. ६८
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