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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन वह नीलाम्बर था स्वच्छ दिशायें लोनी वह मन्द हवा भी बहती आज सलोनी देवों ने अंजलि भरकर पुष्प गिराये गन्धोदक के छीटे प्रभु पर बरसाये।'
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भगवान महावीर के केवलज्ञान उत्पन्न होते ही देवगण पंच दिव्यों की वृष्टि करते हुए ज्ञान की महिमा करने आये। श्रद्धा और भक्ति से भगवान की पूजा, स्तुति और केवलज्ञान कल्याणकका महोत्सव मनाया। तदुपरांत समवशरण की रचना की। कवि गुप्तजी ने काव्य-कौशल व बुद्धि चातुर्य द्वारा समवशरण का सुंदर चित्रण किया है।
रे भूमि भाग खाई का षट् ऋतु सुरभित क्रीडा के सुंदर कुंज कुंज थे कुसुमित वह चन्द्रकान्त मणि शिला जहाँ थी शीतल विश्राम इन्द्र करते कि बैठकर इक पल । २
*** प्रभु के वन आगमन से प्रकृति में उल्लास की लहर उठने लगी। पशु-पक्षी, नरनारी भगवान के स्वागत के लिए खड़े हैं। अपनी अपनी भाषा में सभी जड़-चेतन प्रकृति प्रभु के गुणगान करने लगे । सभी ने श्रद्धा से भगवान को वंदना की । सरिता आदि भगवान के चरण का पक्षालन करके अपने आप को धन्य धन्य समझने लगी। इस प्रकार वीर प्रभु के पदार्पण से संपूर्ण आकाश मधुर गीतों से गूंजने लगा। इसी का चित्रण कविने करते हुए कहा है -
सब भाषाओं की वाणीने, सब भाषाओं में गुण गाये। पग छू छू सभी दिशाओं ने, परिधान दिगम्बर से पाये ॥ फूलों ने इत्र निचोड़ दिया, तरुओने छाते तान दिये। पग जिधर बढे खिल गये कमल, ज्ञानोदयने दियमान दिये ॥
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"तीर्थंकर महावीर" : कवि गुप्तजी, पंचम सर्ग-पृ.१७६ वही, “बालोत्पल", पृ.१८० वही, “वनपथ", सर्ग-१०, पृ.२६१
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