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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
नागिन यदि काटे कभी बच सकते है प्राण। नारी के विष का डसा, कही न पाता त्राण ॥
*** नारी के व्यवहार से तरह तरह के रुप। रुप रुप में लुट गये योगी योद्धा भूप ॥२
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आधुनिकता की भर्त्सना करनेवाले कवि ने नारी का कुलवधू गृहिणी रुप श्रेयस्कर माना है। नारी में वह शक्ति है जो कुलवधू का भार ग्रहण कर वेदना को पीकर भी अपने कुल की प्रतिष्ठा को बनाये रखती है। भारतीय परम्परागत आदर्श से युक्त कुलवधू की स्थिति बड़ी ही दयनीय होती है। उसका सर्वस्व पति के लिए समर्पित हो जाता है। संसार की कुत्सित भावनाओं से बचने के लिए वह आवरण में छिपी रहती है लज्जा ही उसका आभूषण बन जाता है। कुलवधू का दूसरा रुप सुकन्या है जिसे अपनी गृहस्थी में सुख और संतोष प्राप्त है। कुलवधू की मर्यादा, सहनशीलता, सौजन्य सभी गुण सुकन्या में दृष्टव्य है। जैसे कविने वर्धमान की पत्नी यशोदा का गुणानुवाद का चित्रण सुंदर काव्य में अंकित किया है -
सास श्वसुर औ निज स्वामी से पहिले शैया से उठ जाती। शौच आदि से निवृत्त होकर चरण स्पर्श का पुण्य कमाती । गाय पुजती, तुलसी अर्चन, अर्ध्य सूर्य को नित देती। चींटी कीडे विहंग वृन्द को खिला पिलाकर अतिसुख लेती॥३
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“वीरायण" : कवि मित्रजी, “विरक्ति", सर्ग-९, पृ.२२९
वही .. "भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, “सद् गृहस्थसरिता"- सप्तम् सर्ग, पृ.९१
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