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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन पूर्व भूमिका धर्म और दर्शन मनुष्य के लिए आवश्य ही नहीं अपितु अनिवार्य है। जब मानव चिन्तन के सागर में डुबकी लगाता है तब दर्शन का और जब वह उस चिन्तन का अपने जीवन में प्रयोग करता है तब धर्म का जन्म होता है। मानव के जीवन की उलझन को सुलझाने के लिए ही धर्म और दर्शन का जन्म हुआ। धर्म और दर्शन ये दोनों ही एक दूसरे से पूरक हैं। चिन्तकों ने धर्म में बुद्धि, भावना और क्रिया तीन तत्त्व माने हैं। बुद्धि से ज्ञान, भावना से श्रद्धा और क्रिया से आचार अपेक्षित है। जैन दृष्टि में इसी को सम्यक् श्रद्धा, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र कहा जाता है। काण्ट' ने धर्म की व्याख्या करते हुए ज्ञान क्रिया को महत्त्व दिया है। ' महान दार्शनिक सुकरात की दृष्टि से धर्म और दर्शन भिन्न नहीं परंतु अभिन्न है। उसके पश्चात् ग्रीक व युरोपीय दार्शनिकों में धर्म और दर्शन को लेकर मतभेद उपस्थित हुआ है। दार्शनिक सुकरातने जो दर्शन और धर्म का निरूपण किया वह जैन धर्म से बहुत कुछ संगत प्रतीत होता है। जैन धर्म के आधार पर पांच भेद माने गये है। उसमें ज्ञानाचार भी एक है। ज्ञान और आचार परस्पर सापेक्ष हैं। इस दृष्टि से विचार दर्शन और आचार धर्म है। जैन धर्म में मुख्य रूप से दो तत्व हैंएक अहिंसा और दूसरा अनेकान्त । अहिंसा धर्म है और अनेकान्त दर्शन है। इस प्रकार दर्शन धर्म है और धर्म दर्शन है। विचार में आचार और आचार में विचार यही भारतीय चिन्तन की विशेषता है। जैन धर्म की प्राचीनता ___ जैन धर्म में मान्य तीर्थंकरों का अस्तित्व वैदिककाल के पूर्व भी विद्यमान था। इतिहास इस परंपरा के मूल तक नहीं पहुंच सका है। उपलब्ध पुरातत्व संबंधी तथ्यों के निष्पक्ष विश्लेषण से यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि तीर्थंकरों की परंपरा अनादिकालीन है। वैदिक वाङ्मय में वात-रशनामुनियों, केशीमुनि और वात्य क्षत्रियों के उल्लेख आये हैं, जिनसे यह स्पष्ट है कि पुरूषार्थ पर विश्वास करनेवाले धर्म के प्रगतिशील व्याख्याता तीर्थंकर प्रागैतिहासिक काल में भी विद्यमान थे। मोहन-जो-दडों के खंडहरों से प्राप्त योगीश्वर ऋषभ की कार्योत्सर्ग मुद्रा इसका जीवंत प्रमाण है। यहां से उपलब्ध . २. डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा पृ.१. सन्दर्भ - आचार्य हस्तिमलजी : जैन धर्म का मौलिक इतिहास पृ.३७ स्थानाङ्ग ५ उद्दे. २ सूत्र ४३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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