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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
समाज स्पष्ट रुप से दो वर्गों में विभक्त था । कुलीन तथा निम्न वर्ग । जिन्हें हम शोषक एवं शोषित वर्ग के रूप में समझ सकते हैं । अत्याचार तथा शोषण की आड़ में तथाकथित उच्च वर्ग ने सारे अधिकारों का केन्द्रीकरण करके शोषिक वर्ग को घुट-घुट कर जीवन यापन करने को मजबूर किया। कवि ने तत्कालीन काव्य में अमीर-गरीब वर्ग का चित्रण प्रस्तुत किया है
ये धन कुबेर नित बना
भव्य प्रादास सदन
सुख की अभिलाषा और
अधिक जागृत पल क्षण
वह भी मानव - गृह हीन कि नि:संबल निर्बल
रे दीन हीन जो सदा
भोगता दुःख केवल'
तत्कालीन समाज में चारों ओर जातिवाद का बोलबाला था । जाँति - पाँति की संकीर्ण सीमाएं, वर्ण-भेद की अमानवीय विषमताएँ ऊँच-नीच की दानवी भावनाएँ, छूआ-छूत की मनमानी कल्पनाएँ मानव समाज के नस नस में गहरी पैठ गई थी । सामाजिक मर्यादायें टूटने लगीं। रूढियों और अन्ध विश्वासों के निर्वाह हेतु होनेवाले व्यय ने उनकी स्थिति और भी दयनीय बना दी । दहेज का दूषण समाज को कलंकिता बना रहा था। समाज में व्यभिचार पनप रहा था आर्थिक वैषम्य के कारण समाज में द्वेष और संघर्ष बढ रहे थे । धर्म- नेता पुरोहितों के हाथ में समाज की सारी शक्ति केन्द्रित थी। समाज के सूत्रधार और भाग्यविधाता होने के नाते उन्होने मन चाही करने में कोई उठा रखी थी। उनकी यह सार्वभौम शक्ति न योग्यता पर निर्भर थी, न सेवा पर और न सदाचार और सत्कर्म की उच्च मर्यादाओं पर । वह थी एक मात्र बपौती पर आधारित । इन शक्ति का प्रयोग पुरोहित वर्ग ने इतनी उच्छृंखलता के साथ किया कि जिससे दूसरे मुक्त सांस भी न ले सकें। वहाँ ब्राह्मण के यहाँ जन्म ले लेने मात्र से पवित्रता एवं उच्चता का मानपत्र मिल जाता था; फिर चाहे वह कितना ही पथ-भ्रष्ट क्यों न हो । शास्त्रों के पठन पाठन का एक मात्र अधिकार ब्राह्मण वर्ग को ही था और शुद्र, वह चाहे
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"तीर्थंकर महावीर", कवि गुप्तजी, सर्ग - २, पृ. ६४
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