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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
१२१ जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। इसी भावना की अभिव्यक्ति हमें जिमेरिन के चिंतन में मिलती है, जिसके लिए उसने कहा है- “राष्ट्रीयता सामूहिक भावना का एक रुप है, जिसका अपने निश्चित देश से गहरा परिचय होता हैं तथा अनोखी प्रतिष्ठा होती है।"
___ भारत में राष्ट्रीयता के रुप में संयुक्त कुटुम्ब की भावना महती रुप से विद्यामान है ऋग्वेद में ऐसी भावनाओं के दर्शन किए जा सकते हैं -
“सगच्छध्वं संवदध्वं संवो मानसि जानताम् । देवा भाग यथा पूर्वे सन्जानाना उपासते ॥” २
*** भावार्थ है कि हम सब की गति एक ही प्रकार ही है। हम एक साथ चलें। हम एक प्रकार की वाणी बोलें। हम सब के मन में एक से भाव प्रकट हों। जैसे देवता पहले से करते आए हैं उसी प्रकार समान भाव करें।
___ भारतीय सिद्धान्त के अनुसार धर्म और संस्कृति हमारी राष्ट्रीयता के प्राणाधार रहे । वाल्मीकि, भवभूति, कालिदास आदि के साहित्य में राष्ट्रीयता का ऐसा ही रुप अंकित हुआ है।
___भारत की एकसूत्रता के विषय में संस्कृति के चार अध्याय' में दिनकरजी ने भारत की प्राचीन राष्ट्रीयता पर अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है - "उत्तर को आर्यो का देश और दक्षिण को द्रविडों का देश समझने का भाव यहाँ कभी नहीं पनपा। क्योंकि आर्य और द्रविड नाम से दो जातियो का विभेद यहाँ हुआ ही नहीं था। समुद्र से उत्तर और हिमालय से दक्षिणवाला विभाग यहाँ हमेशा से एक देश माना जाता रहा
उपरोक्त चर्चा से यह स्पष्ट होता है कि वेदों, पुराणों और शास्त्रों में राष्ट्रीयता का जो स्वरुप उपलब्ध है उसमें भारत की अखण्ड भौगोलिक एकता, धार्मिक एकसूत्रता और सांस्कृतिक गरिमा के दर्शन होते हैं। जन्मभूमि को स्वर्ग से भी महान् मानने के साथ-साथ अन्य देशों के प्रति जो सद्भावना और अनाक्रमता की भावनायें अंकित है।
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“जीवन दर्शन' : “उपाध्याय अरमरमुनि', सन्दर्भ में-पृ.२०४ ___ "ऋग्वेद", १०/१९१/२
"संस्कृति के चार अध्याय" : रामधारी सिंह "दिनकर", पृ.६७-६८
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