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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
राष्ट्र शब्द के अर्थ के विषय में 'उपाध्याय अमरमुनिजी' ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है- "भारत जमीन को नहीं कहते हैं। जमीन तो एक सिरे से दूसरे सिरे तक एक है। राष्ट्र का वास्तविक अर्थ उस भूमि पर रहनेवाली प्रजा से है । अतएव यदि प्रजा बलवान है, तो राष्ट्र भी बनवान बनेगा और यदि प्रजा स्वयं दुर्बल है और अपनी रोटी के लिए दूसरों का मुंह ताकती है, तो उसका राष्ट्र भी कभी ऊँचा नहीं उठ
सकता । १
भारतीय दृष्टिकोण:
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अथर्ववेद के "पृथ्वीसूक्त" के अनेक सूत्र राष्ट्रीयता के परिचायक हैं। धरती को जन्मदायिनी एवं कल्याणी माँ के रुप में मानकर उसकी प्रशंसा की गई हैं । इसमें देश के भौगोलिक सौन्दर्य के साथ पशु-पक्षी एवं विविध धर्म एवं भाषा के लोगों की शुभ कामना की गई हैं। आर्य लोग - वैविध्य को एक ही स्त्रोतस्विनी की विभिन्न जलधारायें मानकर एकता की पवित्र गंगा में विलीन होने की मंगल कामना करते थे। उनकी भावनाओं का मूल लोक-कल्याण और सर्वोदय - भावना से अनुप्राणित था । अथर्ववेद में “अभिवर्धताम पयसामि राष्ट्रेण वर्धताम " । ' अर्थात् मनुष्य दुग्धाधि पदार्थो से बढे, राज्य से बढे कहकर व्यक्ति और राज्य की समृद्धि की कामना की हैं।
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राष्ट्रीयता या राष्ट्रीय चेतना एक व्यापक शब्द है, एक महान भावना है । चिंतकों ने प्रायः राष्ट्रीय चेतना का लगाव उस राष्ट्रमें निवास करनेवाले व्यक्ति व व्यक्ति समुदायों के दिलों में अपनी मातृभूमि के प्रति अगाध भक्ति भावना है.
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युद्ध बंध हो, पुजे अहिंसा, विश्वशांति के दीप जलें । धरती पर हो स्वर्ग, सकल जन, महावीर के मार्ग चले ॥ मैं ज्ञान चाहता हूँ, उत्थान चाहता हूँ । माँ देश का तुम्हारा, सम्मान चाहता हूँ । "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥"
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"जीवन दर्शन": "उपाध्याय अमरमुनि, पृ. २१५ 'अथर्ववेद', : ६/७८/२१
"भगवान महावीर” : कवि शर्माजी, पृ. ३
"वीरायण", कवि मित्रजी, संताप सर्ग,
पृ. - २११
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