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________________ जैन वाक्यदर्शन : ६५ उच्चारण मात्र से ही स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि अन्य पद तो विवक्षा को वहन करने वाले होते हैं। वाक्यपदीय में कहा गया है कि क्रिया से यदि कारक का विनिश्चय सम्भव है तो फिर कारक के कथन से भी क्रिया का निश्चय सम्भव है। यह सिद्धान्त यद्यपि वाक्य में कारक पद के महत्त्व को स्पष्ट करता है फिर भी पूर्णतः सत्य नहीं माना जा सकता। जैनाचार्य प्रभाचन्द्र का कहना है कि चाहे वाक्य का प्रथमपद अर्थात् कारक पद हो अथवा अंतिम पद अर्थात् क्रियापद हो वे अन्य पदों की अपेक्षा से हो वाक्यार्थ के बोधक होते हैं, यदि एक ही पद वाक्यार्थ के बोध में समर्थ हो तो फिर वाक्य में अन्य पदों की आवश्यकता ही नहीं रह जावेगी। दूसरे शब्दों में वाक्य में उनके अभाव का प्रसंग होगा । यह सही है कि अनेक प्रसंगों में प्रथम पद (कारक पद) के उच्चारण से ही वाक्यार्थ का बोध हो जाता है। उदाहरण रूप में जब राज दीवार की चुनाई करते समय ईंट या पत्थर शब्द का उच्चारण करता है तो श्रोता यह समझ जाता है कि उसे ईंट या पत्थर ढोने का आदेश दिया गया है। यहाँ प्रथम पद का उच्चारण सम्पूर्ण वाक्य के अर्थ का वहन करता है किन्तु हमें यह समझ लेना चाहिए कि वे "इंट" या "पत्थर" शब्द प्रथम पद के रूप में केवल उस सन्दर्भ विशेष में ही वाक्य का स्वरूप ग्रहण करते हैं उससे पृथक् हो करके नहीं। राज के द्वारा उच्चरित पत्थर शब्द पत्थर लाओ का सूचक होगा जबकि छात्र-पुलिस संघर्ष में प्रयुक्त पत्थर शब्द अन्य अर्थ का सूचक होगा। अतः कारक पद केवल किसी सन्दर्भ विशेष में ही वाक्यार्थ बोधक होता है, सर्वत्र नहीं। उसमें भी अव्यक्तरूप से आख्यात पद या क्रिया पद निहित ही रहता है। अतः एकान्तरूप से कारकपद को वाक्य मान लेना उचित नहीं है। राम शब्द का उच्चारण किसी सन्दर्भ में वाक्यार्थ का बोधक हो सकता है, सदैव नहीं। इसलिए केवल आदिपद या कारक को वाक्य नहीं कहा जा सकता। केवल 'पद' विशेष को ही वाक्य मान लेना उचित नहीं है, अन्यथा वाक्य में निहित अन्य पद अनावश्यक और निरपेक्ष होंगे, इस स्थिति में उनसे वाक्य बनेगा ही नहीं, पद सदैव सावांक्ष होते हैं और उन साकांक्ष पदों से निर्मित वाक्य निराकांक्ष होता है । अतः वाक्य में पदों का स्थान महत्त्वपूर्ण होते हुए भी वे स्वतन्त्र रूप से वाक्य नहीं कहे जा सकते हैं। साकांक्ष पव ही वाक्य है कुछ विचारकों के अनुसार वाक्य का प्रत्येक पद वाक्य के अंग के रूप में साकांक्ष होते हुए भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है। इस मत में प्रत्येक पद का व्यक्तित्व स्वतन्त्र रूप से स्वीकार किया जाता है। इस मत के अनुसार पदों का अपना निजी अर्थ उनकी सहभूत/समवेत स्थिति में भी रहता है। यह मत वाक्य में पदों की स्वतन्त्र सत्ता और उनके महत्त्व को स्पष्ट करता है । संघातवाद से इस मत की भिन्नता इस अर्थ में है कि जहाँ संघातवाद और क्रमवाद में पद को प्रमुख स्थान और वाक्य को गौण स्थान प्राप्त होता है, वहाँ इस मत में पदों को साकांक्ष मानकर वाक्य को प्रमुखता दी जाती है। यह मत मानता है कि पद वाक्य के अन्तर्गत हो अपना अर्थ पाते हैं उससे बाहर नहीं। वस्तुतः यह अवधारणा जैन दर्शन के अत्यन्त निकट है, क्योंकि जैनदार्शनिक भी साकांक्ष पदों की निरपेक्ष महति को ही वाक्य कहते हैं । वाक्य के सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण __ जैन मत साकांक्ष पदों के निरपेक्ष समूह को वाक्य कहता है, किन्तु वह पद और वाक्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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