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________________ ६४ : जन भाषादर्शन न हों तो उनसे वाक्य नहीं बनेगा। सार्थक वाक्य के लिए पदों का क्रमात्मक विन्यास आवश्यक है । पद क्रम ही वस्तुतः वाक्य की रचना करता है और उसी से वाक्यार्थं का बोध होता है । पदों का एक अपना अर्थ होता है और एक विशिष्टार्थ । पदों का एक विशिष्ट अर्थ उनमें क्रम पूर्वक विन्यास - दशा में ही व्यक्त होता है। पदों का यह क्रमपूर्वक विन्यास ही वाक्य का स्वरूप ग्रहण करता है । साथ ही क्रमवाद काल की निरन्तरता पर बल देता है और यह मानता है कि काल का व्यवधान होने से पद क्रम टूट जाता है और पदक्रम टूटने से वाक्य नष्ट हो जाता है । क्रमवाद में एक पद के बाद आनेवाले दूसरे पद को प्रथम पद का उपकारक स्वीकार किया जाता है। पदों का यह नियत क्रम ही उपचीयमान अर्थात् प्रकट होने वाले अर्थ का द्योतक होता है । जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्र इस मत को संघातवाद से अधिक भिन्न नहीं मानते हैं मात्र अन्तर यह है कि जहाँ संघातवाद पदों की सहवर्तिता पर बल देता है, वहाँ क्रमवाद उनके क्रम पर । उनके अनुसार इस मत में भी वे सभी दोष हैं जो संघातवाद में हैं, क्योंकि यहाँ भी देश और काल की विभिन्नता का प्रश्न उठता है—एक देश और काल में क्रम सम्भव नहीं और काल में पदों की स्थिति मानने पर अर्थबोध में कठिनाई आती है । पदों का क्रम एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है किन्तु यह क्रम साकांक्ष पदों में कथंचित् अभिन्न रूप से वाक्य में स्थित हैं, ही सम्भव है । और अलग-अलग देश यद्यपि वाक्य - विन्यास में जो कथंचित् भिन्न और (६) बुद्धिगृहीत तात्पर्य ही वाक्य है इस मत का स्वरूप एवं समीक्षा कुछ दार्शनिकों की मान्यता है कि शब्द या शब्द-समूह बाह्याकार मात्र हैं, वाक्यार्थं उनमें निहित नहीं है । अतः वाक्य वह है जो बुद्धि के द्वारा ग्रहीत है । बुद्धि की विषयगत एकाग्रता से ही वाक्य बोला जाता है और उसी से वाक्य के अर्थ का ग्रहण होता है। वाक्य का जनक एवं कारण बुद्धि तत्त्व है । वक्ता द्वारा बोलने की क्रिया तभी सम्भव है, जब उसमें सुविचारित रूप में कुछ कहने की इच्छा होती है । अतः बुद्धि या बुद्धितत्त्व ही वाक्य का जनक होता है । बुद्धि के अभाव में न तो वाक्य का उच्चारण सम्भव है और न श्रोता के द्वारा उसका अर्थ ग्रहण ही सम्भव है । अतः वाक्य का आधार बुद्धि - अनुसंहति है । जैनाचार्य प्रभाचन्द्र इस दृष्टिकोण की समीक्षा करते हुए प्रश्न करते हैं कि यदि बुद्धि तत्व ही वाक्य का आधार है तो वह द्रव्य वाक्य है या भाव वाक्य । बुद्धि को द्रव्य वाक्य कहना तर्क संगत नहीं है, क्योंकि द्रव्य वाक्य तो शब्द ध्वनिरूप है, अचेतन है और बुद्धितत्त्व चेतन है अतः दोनों में विरोध है । अतः बुद्धि को द्रव्यवाक्य नहीं माना जा सकता । पुनः यदि यह मानें कि बुद्धितत्त्व भाववाक्य है तो फिर सिद्धसाध्यता का दोष होगा। क्योंकि बुद्धि की भाववाक्यता तो सिद्ध ही है । बुद्धितत्व को भाववाक्य के रूप में ग्रहण करना जैनों को भी इष्ट है । इस सम्बन्ध में बुद्धिवाद और जेन दार्शनिक एक मत ही हैं। वाक्य के भावपक्ष या चेतनपक्ष को बौद्धिक मानना जैनदर्शन को भी स्वीकार्य है और इस दृष्टि से यह मत जैनमत का विरोधी नहीं है । (७) आद्य पद (प्रथमपद) ही वाक्य है - इस मत का स्वरूप एवं समीक्षा कुछ विचारकों की मान्यता है कि वाक्य के प्रथमपद का उच्चारण ही सम्पूर्ण वाक्यार्थं को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य रखता है । इस मत के अनुसार वक्ता का अभिप्राय प्रथम पद के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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