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________________ जेन शब्ददर्शन: ५५ (७) पुनः अन्यापोह या अत-व्यावृत्ति के बौद्धों के इस सिद्धान्त में अन्योन्याश्रय दोष भी आता है क्योंकि 'अगो' के व्यवच्छेद (निषेध) से 'गो' की प्रतिपत्ति होती है और 'गो' के व्यवच्छेद (निषेध) से 'अगो' की प्रतिपत्ति होती है और यह दोहरा निषेध विधि रूप ही सिद्ध होता है । अतद् के निषेध से जिसकी उपलब्धि होती है वह तो विधि रूप ही होगा । (८) पुनः जिसे 'गो' शब्द का अर्थ ज्ञात न हो वह 'अगो' शब्द का अर्थ भी नहीं जान पायेगा अर्थात् व्यवच्छेद (निषेध) के लिए भी विधि रूप ज्ञान आवश्यक है । (९) पुनः, अनेक स्थितियों में शब्दों के परस्पर एक दूसरे का पूर्ण निषेध करने वाले ऐसे दो व्यावर्तक वर्ग भी नहीं बन पाते हैं । उदाहरण के लिए सर्व शब्द से परिहृत असर्व शब्द निरर्थक होता है । (१०) यदि सभी शब्दों का वाच्यार्थ अतद्व्यावृत्ति या निषेध ही है तो ऐसी स्थिति में सभी शब्द निषेध या व्यावृत्ति के वाचक होने से पर्यायवाची हो जायेंगे, क्योंकि उनके वाच्यभूत विषय के तुच्छ स्वभाव होने के कारण उनमें कोई भी भेद नहीं रहेगा । स्वरूपतः एक ही स्वभाव के अर्थात् निषेध-मूलक होने के कारण उनमें कोई भेद नहीं है और उनके वाच्य विषय के विकल्पित होने के कारण भी उनमें कोई भेद नहीं होगा और ऐसा होने पर विशेषण विशेष्य भेद, अतीत अनागत आदि काल-भेद, स्त्री पुरुषादि लिंग-भेद, गो, महिष आदि जाति-भेद, एकवचन, द्विवचन आदि वचन-भेद' भी नहीं रह जायेंगे । पुन यदि बौद्ध अपोह में भेद स्वीकार करेंगे तो फिर वह अपोह भी विकल्प रूप न रह कर वस्तु रूप हो जायेगा और इस प्रकार प्रकारान्तर से जैन मत का ही समर्थन होगा । डॉ० गोविन्दचन्द्र पाण्डेय का अभिमत है कि अपोह केवल निषेध मूलक नहीं है । वे लिखते हैं किअपोह में प्रत्यक्ष और कल्पना, वस्तु और अवस्तु, विधि और निषेध, इनका एक जटिल मिश्रण है । आकृतिवाद और जैनदर्शन शब्द का वाच्यार्थ सामान्य है अथवा विशेष- इस चर्चा के प्रसंग में हमने देखा था कि जैन दार्शनिक शब्द के वाच्यार्थ को जात्यन्वित व्यक्ति / सामान्यान्वित -विशेष मानते हैं । यद्यपि यह प्रश्न फिर भी समाधान की प्रतीक्षा करता है कि यह सामान्यान्वित -विशेष क्या है ? यह वस्तु है या बुद्धधर्थं । बुद्धधर्थं से तात्पर्य मानसिक बिम्ब या चित्त - विकल्प से है । जहाँ न्यायवैशेषिक उसे वस्तु मानते हैं वहाँ वैयाकरणिक और किसी सीमा तक बौद्ध उसे बुद्धयर्थ या बुद्धि-आकार मानते हैं । जैन इन दोनों के मध्य एक समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं, उनके अनुसार शब्द का वाच्यार्थं न तो बुद्धयाकार या ज्ञानाकार या चित्त विकल्प है और न बाह्यवस्तु; अपितु शब्द श्रवण से वस्तु की चेतना में उद्भूत आकृति है । साकार ज्ञानवाद के आधार पर यह सिद्धान्त आकृतिवाद कहा जाता है। " शब्दों के श्रवण या चिन्तन के माध्यम से हमारी चेतना में शब्द द्वारा वाच्य वस्तु की एक आकृति उभरती या प्रतिबिम्बित होती है और यही आकृति हमारे संवेदन या बोध का विषय होती है । जब हम 'गाय' शब्द सुनते हैं तो हमारी चेतना में गाय की आकृति का सम्वेदन या बोध होता है जो कि अश्व की आकृति से भिन्न होता है । इसी आकृति के सहारे तद्रूप वस्तु में हमारी प्रवृति होती है । अतः शब्द का वाच्यार्थ अनुभवगम्य वस्तु की एक आकृति है । गाय शब्द के श्रवण से गलकम्बल १. अपोह सिद्धि ( रत्नकीर्ति) — अनु० गोविन्दचन्द्र पाण्डे, पृ० ४० । २. विस्तृत विवेचन के लिए देखें - Indian Logic - B. N. Singh, P, 222 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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