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४६ : भाषादर्शन लिए आनुभविक स्तर पर यही बात अधिक संगतिपूर्ण सिद्ध होती है कि शब्द का वाच्यार्थ एकान्तरूप से न तो सामान्य है और न विशेष, अपितु सामान्यवान् विशेष ही है।
शब्द का वाच्यार्थ जात्यान्वित व्यक्ति या सामान्यवान् विशेष है-इस बात का समर्थन पाश्चात्य तार्किक भाववादियों ने भी किया है। ताकिक भाववादियों के अनुसार वही भाषा सार्थक मानी जाती है जिसका प्रतिपाद्य कोई आनुभविक तथ्य हो। दूसरे शब्दों में वे उन्हीं शब्दों, अर्थों
और प्राक्कथनों को अर्थवान् मानते हैं जिनके वाच्यार्थ सत्यापनीय हों। यदि इस दृष्टि से हम विचार करें तो हमें जैनों की और किसी सीमा तक नैयायिकों को यह अवधारणा समुचित लगती है कि शब्द के वाच्यार्थ अनुभव के वे विशेष तथ्य हैं जिनमें सामान्य या जाति अनुस्यूत है।
भाषा दर्शन के क्षेत्र में शब्द का वाच्यार्थ सामान्य है या विशेष--यह समस्या तब ही महत्वपूर्ण हो सकती थी जबकि सामान्य या विशेष अथवा व्यक्ति और जाति दो पृथक्-पृथक् तथ्य होते। वस्तुतः यह विवाद इसलिए खड़ा हो गया कि हमने विचार के स्तर पर पृथक्भूत (Distinguishable) और अनुभव के स्तर पर पृथभूत (Separable) के विभेद को भुला दिया है। कुछ ऐसी बातें अवश्य हैं जिन्हें हम विचार के क्षेत्र में विश्लेषित करके समझ सकते हैं किन्तु अनुभव के क्षेत्र में उन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता । सामान्य और विशेष अथवा व्यक्ति और जाति ऐसे ही तथ्य हैं जिन्हें हम वैचारिक स्तर पर एक-दूसरे से पृथक् कर सकते हैं किन्तु अनुभव के स्तर पर उन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। जाति या सामान्य एक अमूर्त तथ्य है जिसका अस्तित्व कुछ समानताओं के आधार पर व्यक्तियों में स्वीकार किया जा सकता है किन्तु उसे हम व्यक्तियों से पृथक कर नहीं देख सकते हैं । अतः शब्द का वाच्य सामान्यवान् विशेष हो सकता है क्योंकि उसी की आनुभविक सत्ता है ।
___ इस चर्चा के सन्दर्भ में हमें एक बात और ध्यान रखना चाहिए, वह यह कि भाषा का सम्बन्ध तथ्यात्मक जगत् से है । अनुभवातीत और अमूर्त सत्ता को भाषा के द्वारा अर्थात् शब्दों के द्वारा वाच्य नहीं बनाया जा सकता है। अनुभव का अतिक्रमण करने वाले तथ्यों के सन्दर्भ में भाषा 'नेतिनेति' का उद्घोष कर मौन धारण कर लेती है। अतः शब्दों के वाच्य विषयों के सन्दर्भ में अथवा भाषा की सीमा की चर्चा करते हुए हमें इस बात को स्वीकार करना होगा कि उनका प्रतिपाद्य आनुभविक तथ्य ही हो सकते हैं, अनुभवातीत तथ्य नहीं और ये आनुभविक तथ्य ही जात्यान्वित विशेष या व्यक्ति हैं। इनसे परे शब्द और भाषा को कोई गति नहीं है। समकालीन ताकिक-विश्लेषणवादियों ने इसलिए तत्त्वमीमांसीय अनुभवातीत अमूर्त प्रत्ययों को निरर्थक (Meaningless) कहा है। क्योंकि वे असत्यापनीय हैं। भारतीय दार्शनिकों को दृष्टि से वे 'अवाच्य' हैं। शब्दों का वाच्यार्थ तो आनुभविक तथ्य अर्थात् जात्यान्वित व्यक्ति है। क्योंकि व्यक्ति निरपेक्ष सामान्य (जाति) और सामान्य (जाति) निरपेक्ष व्यक्ति की सत्ता ही नहीं है, वे अनुभव के विषय नहीं हैं । अनुभव का विषय तो जात्यान्वित व्यक्ति है, अतः जैनों के अनुसार वही शब्द का वाच्यार्थ है ।' जैनों के अनुसार सामान्य सादृश्य बोध है। १. विस्तृत चर्चा के लिए देखें--
(अ) न्यायकुमुदचन्द, पृ० ५६८ । (ब) जैन न्याय (पं० कैलाश चन्द जी), पृ० २४९ से १५३ ।
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