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४४ : भाषादर्शन
किन्तु यही 'पत्थर' शब्द जब पुलिस और छात्रों की मुठभेड़ के समय उच्चरित किया जाता है तो उसका अर्थ होगा 'पत्थर चल गये' या 'पत्थर मारो' । अतः शब्दों या कथनों का वाच्यार्थ उस समग्र सन्दर्भ में निर्धारित होता है जिसमें वह बोला या लिखा जाता है । वक्ता के अभिप्राय का श्रोता और लेखक के अभिप्राय का पाठक सही अर्थ ग्रहण करें इसलिए जैन आचार्यों ने निक्षेपसिद्धांत और नयसिद्धान्त का प्रतिपादन किया है जिन पर हम यथाप्रसंग चर्चा करेंगे । इन्हीं दोनों सिद्धान्तों के आधार पर अनेकार्थक शब्दों एवं वाक्यों के अर्थ का निर्धारण होता है । शब्द का वाच्य सामान्य (जाति) या विशेष (व्यक्ति) -
शब्द का वाच्यार्थ के सम्बन्ध में एक विवाद सामान्य और विशेष को लेकर है । मूलभूत प्रश्न यह है कि शब्द से जाति का ग्रहण होता है या व्यक्ति का । मीमांसकों के अनुसार शब्द का विषय सामान्य अर्थात् जाति ही है ।" शब्द सामान्य के सूचक एवं ग्राहक हैं । विशेष (व्यक्ति) शब्द का विषय नहीं हो सकते क्योंकि व्यक्ति अनेक होते हैं किन्तु उनका संकेतक शब्द एक होता है - जैसे गो, महिष, मनुष्य आदि । मनुष्य शब्द को ही लें। मनुष्य अनेक हैं, किन्तु मनुष्य शब्द एक है और उसके द्वारा सभी मनुष्यों का ग्रहण हो जाता है । अतः शब्द से जाति या सामान्य का ग्रहण होता है । प्रश्न यह भी हो सकता है कि वे शब्द जो स्वरूपतः व्यक्तिवाचक हैं उनका वाच्यार्थं सामान्यी कैसे हो सकता है ? सामान्यतया यहाँ भी सामान्यवादी यही कहेगा कि व्यक्तिवाचक शब्द भ सामान्य के ही वाचक हैं क्योंकि वे जिसको वाच्य बनाते हैं वह विशेष नहीं होकर सामान्य ही होता है । जैसे - सागरमल शब्द का वाच्य वह व्यक्ति नहीं है जो क्षण-क्षण बदलता है, अपितु वह है जो इन बदलती हुई व्यष्टियों में भी अनुस्यूत है । मीमांसकों के इस मत के ठीक विपरीत बौद्ध सामान्य के अस्तित्व को ही अस्वीकर कर देते हैं। उनके अनुसार शब्द का कार्य अन्यापोह या अन्य - व्यावृत्ति है । जब शब्द अन्य की व्यावृत्ति या निषेध कर देता है तो उसका वाच्य विशेष ही होगा । इन दोनों मतों का समन्वय करते हुए न्याय दर्शन और जेन दर्शन ने जाति - विशिष्ट व्यक्ति अथवा सामान्य-विशिष्ट विशेष को शब्द का वाच्यार्थ माना है । वस्तुतः यदि हम शब्द को केवल जाति या सामान्य का संकेतक या ग्राहक मानेंगे तो फिर उससे व्यवहार की सिद्धि नहीं हो सकेगी क्योंकि जाति तो अमूर्त है । वास्तविकता यह है कि शब्दों भी ग्रहण करते हैं । इस सम्बन्ध में जैनों का मत यह है अर्थात् जाति का संकेतक है और न वह एकान्त रूप से सामान्यवान् -विशेष / जात्यान्वित व्यक्ति का संकेतक है। वस्तुतः जैन दर्शन के अनुसार शब्द सामान्य का संकेतक या ग्राहक है या विशेष का - यह प्रश्न ही गलत है । यह प्रश्न तब ही सम्भव हो सकता है जब सामान्य और विशेष दोनों एक दूसरे से विविक्त अर्थात् स्वतन्त्र सत्ताएँ हों और एक दूसरे से स्वतन्त्र होकर हमारे अनुभव का विषय बनते हों । सामान्य और विशेष अथवा जाति और व्यक्ति चाहे विचार की दृष्टि से पृथक्-पृथक् हों, किन्तु आनुभविक जगत् में वे पृथक-पृथक नहीं पाये जाते हैं । व्यक्तियों से भिन्न न तो जाति या सामान्य की सत्ता है और न सामान्य से रहित
से हम जाति के साथ-साथ व्यक्ति का कि शब्द न तो एकान्तरूप से सामान्य व्यक्ति या विशेष का संकेतक है अपितु
१. जातिरित्युच्यते तस्यां सर्वे शब्दा व्यवस्थिताः । - वाक्यपदीय ३|१|३३
२. ( अ ) समयश्च सामान्य विशेषात्मकेऽर्थेऽभिघीयते न जात्यादि मात्रै । — प्रमेयकमलमार्तण्ड अध्याय ३ । (ब) देखें - The Problem of Meaning in Indian Philosophy p. 220-223..
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