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________________ ४२ : भाषादर्शन ६. प्राधान्यपद नाम-किसी एक पदार्थ की बहलता होने पर उसकी प्रधानता के कारण जो नाम दिया जाता है वह प्राधान्यपद नाम है । जैसे-आम्रवन । आम्रवन में आम्र के अतिरिक्त अन्य वृक्ष भी हो सकते हैं, परन्तु आमों की प्रधानता के कारण उसे आम्रवन नाम दिया जाता है। ७. नामपद-जो भाषा-भेद से बोले जाते हैं, उन्हें नामपद कहते हैं । जैसे-आन्ध्र, द्रविड़ आदि । मेरी अपनी दष्टि में नामपद वे हैं जिसका बिना किसी आधार के नामकरण किया गया हो। ८. प्रमाणपद-गणना अथवा माप की अपेक्षा से जो संज्ञाएँ प्रचलित हैं उन्हें प्रमाणपद कहते हैं। जैसे-हजार, करोड अथवा वर्तमान में मीटर, लोटर आदि। ९. अवयवपद-यह दो प्रकार के होते हैं-१. उपचित अवयवपद और २. अपचित अवयवपद । (अ) उपचित अवयवपद-किसी कारण से किसी अवयव के बढ़ जाने से जो नाम दिये जाते हैं, उन्हें उपचित अवयवपद नाम दिया जाता है। जैसे-शिलीपद, लम्बकर्ण आदि । (ब) अपचित अवयवपद-किसी अवयव के छिन्न हो जाने पर जो नाम दिये जाते हैं उन्हें अपचित अवयवपद कहा जाता है। जैसे-नकटा (छिन्ननासिक), काणा आदि । १०. संयोगपद-किसी संयोग विशेष के आधार पर जो नाम दिये जाते हैं, वे संयोगपद नाम कहे जाते हैं। संयोगपद नाम चार प्रकार के हैं-१. द्रव्यसंयोगपद, २. क्षेत्रसंयोगपद, ३. कालसंयोगपद और ४. भावसंयोगपद । (अ) द्रव्यसंयोगपद-अन्य द्रव्यों अर्थात् वस्तुओं के संयोग के कारण जो नाम दिये जाते हैं वे द्रव्यसंयोगपद कहे जाते हैं । जैसे-दण्डी, गर्भिणी आदि । दण्ड या गर्भ के संयोग के कारण ही इन्हें ये नाम दिये जाते हैं। घी का घड़ा भी इसी प्रकार का नाम है। (ब) क्षेत्रसंयोगपद-किसी क्षेत्र विशेष के कारण जो नाम दिये जाते हैं, वे क्षेत्र संयोगपद कहलाते हैं। जैसे-माथुर, कान्यकुब्ज, दाक्षिणात्य आदि । _ (स) कालसंयोगपद-काल-विशेष के कारण अथवा ऋतु-विशेष के कारण जो नाम दिये जाते हैं, वे कालसंयोगपद हैं। जैसे-वासन्ती, शारदीय आदि। (द) भावसंयोगपद-विशिष्ट भावों की उपस्थिति के कारण जो नाम दिया जाता है, उसे भावसंयोगपद कहते हैं। जैसे-क्रोधी, मायावी, लोभी आदि। अनुयोगद्वार सूत्र का नामकरण की प्रक्रिया का यह विवरण यद्यपि भाषाशास्त्र की दृष्टि से पूर्ण समीचीन विवरण तो नहीं कहा जा सकता है, फिर भी नामकरण की प्रक्रिया पर कुछ प्रकाश अवश्य डालता है। अनेकार्थक शब्दों के वाच्यार्थ-निर्धारण की समस्या ___भाषा दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि अनेकार्थक शब्दों के वाच्यार्थ का निर्धारण किस प्रकार होता है ? यह अनुभव सिद्ध है कि सभी भाषाओं में अनेकार्थक शब्द पाये जाते हैं । अतः प्रश्न यह है कि अनेकार्थक शब्दों के अनेक वाच्यार्थों में से कैसे एक अर्थ प्रमुख हो जाता है और दूसरा अर्थ गौण हो जाता है ? जैन-आचार्यों ने अपने नय सिद्धान्त में इस समस्या को उठाया है। वे कहते हैं कि अनेकार्थक शब्दों में वक्ता के अभिप्राय एवं संदर्भ के आधार पर ही शब्द के विवक्षित वाच्यार्थ का निर्धारण होता है। यदि हम वक्ता के अभिप्राय के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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