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विषयप्रवेश : १३
जैन दार्शनिकों की यह मान्यता कि पशु जगत् में भी अव्यक्त रूप में भाषा की प्रवृत्ति पाई जाती है, समुचित सिद्ध होती है। भाषा का तात्पर्य संकेतों के माध्यम से भावों का सम्प्रेषण है। चाहे कितने ही अस्पष्ट रूप में ही क्यों न हो, पशुओं में भी यह प्रवृत्ति पाई जाती है। अतः जैन विचारकों की यह मान्यता समुचित है कि विश्व में जब से प्राणी का अस्तित्व है, तभी से भा । का अस्तित्व है। प्रज्ञापना के उपर्युक्त कथन का तात्पर्य ही यह है कि भाषा के आदि का प्रश्न प्राणी जगत के 'आदि' के प्रश्न के साथ जडा हआ है और उससे पथक करके इसे नहीं देखा जा सकता है। चूंकि जैन मान्यता के अनुसार प्राणी जगत् का अस्तित्व अनादिकाल से है, अतः भाषा का प्रवाह भी अनादिकाल से चला आ रहा है । यद्यपि कालक्रम एवं देशादि के भेद से उसमें भिन्नता का होना भी स्वाभाविक है। जैनों के अनुसार रात के स्वरूप के समान भाषा के स्वरूप को भी परिणामी-नित्य ही मानना होगा। भाषा परिवर्तनों के मध्य जीवित रहती है। उनके अनुसार भाषा का कोई सृष्टा नहीं है। वह जीवन के अस्तित्त्व के साथ ही चली आ रही है, फिर भी देश एवं काल-क्रम में उसमें परिवर्तन होते रहते हैं।
भाषा सादि है या अनादि है ? इस प्रश्न का समाधान जैन दार्शनिकों ने श्रुत के सादिश्रुत और अनादिश्रुत--ऐसे दो भेद करके भी किया है। श्रुत भाषा पर आधारित है, अतः उसके सादि या अनादि होने का प्रश्न भाषा के सादि या अनादि होने के प्रश्न से जुड़ा हुआ है। यदि जैन दर्शन में अपेक्षा भेद से श्रुत को सादि और अनादि या दोनों माना जा सकता है, तो फिर अपेक्षा भेद से भाषा को भी सादि और अनादि दोनों कहा जा सकता है। किसी विशेष व्यक्ति के द्वारा या किसी देश या काल में विकसित होने की अपेक्षा से अथवा किसी प्रयत्न-विशेष द्वारा बोली जाने की दृष्टि से भाषा सादि है, किन्तु भाषा-परम्परा या भाषा-प्रवाह अनादि है। यद्यपि भाषा को अनादि मानने का तात्पर्य इतना ही है कि जब से प्राणी जगत का अस्तित्व है. भाषा का अस्तित्व है अर्थात संकेतों के माध्यम से भावों एवं विचारों के सम्प्रेषण का कार्य होता रहा है। यह बात अलग है कि आधुनिक वैज्ञानिकों की दृष्टि से इस पृथ्वी पर किसी काल विशेष में जीवन का प्रारम्भ माना जाता है, किन्तु विश्व में जीवन के अस्तित्व को अनादि मानकर हम भाषा को अनादि मान सकते हैं, यद्यपि देश और कालगत परिवर्तन भाषा के स्वरूप को परिवर्तित करते हैं।
भारतीय दर्शन में मीमांसक वेद को नित्य और वैयाकरणिक वर्ण ध्वनि को क्षणिक मानकर भी स्फोट (अर्थबोधक-सामर्थ्य) को नित्य मानते हैं और उस आधार पर भाषा को अनादि मानते हैं। दूसरी ओर नैयायिक शब्द को प्रयत्नजन्य और जगत् को सृष्ट मानते हैं और इस आधार पर भाषा को भी सादि या ईश्वर-सष्ट मानते हैं। जबकि जैन सामान्य भाषा अर्थात संकेतों की अर्थबोध सामर्थ्य को नित्य मानकर भी भाषा विशेष को सादि या अनित्य मानते हैं। भाषा की उत्पत्ति के अन्य सिद्धान्त और जैनदर्शन :
भाषा की उत्पत्ति के सन्दर्भ में विभिन्न सिद्धान्त प्रचलित हैं। किन्तु इनमें प्राचीनतम सिद्धान्त भाषा की देवी उत्पत्ति का सिद्धान्त है, जो यह मानता है कि भाषा की रचना ईश्वर के द्वारा की गई है। भारतीय दर्शनों में न्याय-दर्शन भाषा को ईश्वर के द्वारा सृष्ट मानता है। ईसाई एवं इस्लाम धर्मों में भी भाषा को ईश्वर द्वारा सृष्ट बताया गया है। यद्यपि मीमांसक दार्शनिक शब्द को अनादि मानने के कारण भाषा को भी अनादि बताते हैं। शब्दाद्वैतवादियों ने शब्द को
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