________________
अध्याय १
विषयप्रवेश
आत्माभिव्यक्ति प्राणीय प्रकृति
प्रत्येक प्राणी की यह सहज एवं स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपनी अनुभूतियों और भावनाओं को दूसरे प्राणियों के सम्मुख प्रकट करता है और इस प्रकार दूसरों को भी अपने ज्ञान, अनुभूति और भावना का सहभागी बनाता 1 प्राणी की इसी पारस्परिक सहभागिता की स्वाभाविक प्रवृत्ति को जैनाचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्" नामक सूत्र के द्वारा स्पष्ट किया है । वस्तुतः यह पारस्परिक सहभागिता की प्रवृत्ति ही सामाजिक जीवन की आधारभूमि है । हम सामाजिक हैं, क्योंकि हम अपनी अनुभूतियों एवं भावनाओं में दूसरों को सहभागी बनाए बिना अथवा दूसरों की भावनाओं एवं अनुभूतियों में सहभागी बने बिना नहीं रह सकते । यदि किसी व्यक्ति को ऐसे स्थान पर बन्दी बना दिया जाए, जहाँ उसे जीवन जीने की सारी सुख-सुविधाएँ तो उपलब्ध हों, किन्तु वह अपनी अनुभूतियों और भावनाओं को अभिव्यक्ति न दे सके, तो निश्चय ही ऐसे व्यक्ति को जीवन निस्सार लगने लगेगा और सम्भव है कि वह कुछ समय पश्चात् पागल होकर आत्महत्या कर ले। केवल मनुष्य ही नहीं, अपितु पशुपक्षी भी बिना आत्माभिव्यक्ति के जी नहीं सकते हैं। संक्षेप में - जैनदर्शन के अनुसार आत्माभिव्यक्ति के माध्यम से दूसरों को अपनी अनुभूति और भावनाओं का सहभागी बनाना और दूसरों की अभिव्यक्तियों के अर्थ को समझकर उनकी अनुभूति और भावनाओं में सहभागी बनना -- यह प्राणीय प्रकृति है । अब प्रश्न यह उठता है कि अनुभूतियों और भावनाओं का यह सम्प्रेषण कैसे होता है ? आत्माभिव्यक्ति का साधन भाषा
विश्व के समस्त प्राणी अपनी भावनाओं एवं अनुभूतियों की अभिव्यक्ति दो प्रकार से करते हैं - १. शारीरिक संकेतों के माध्यम से और २. ध्वनि संकेतों के माध्यम से । इन्हीं ध्वनि संकेतों के आधार पर ही बोलियों एवं भाषाओं का विकास हुआ है। विश्व के समस्त प्राणियों में 'मनुष्य इसीलिये सबसे अधिक सौभाग्यशाली है कि उसे अभिव्यक्ति या विचार सम्प्रेषण के लिये एक विकसित भाषा मिली हुई है । शब्द प्रतीकों - जो कि सार्थक ध्वनि संकेतों के सुव्यवस्थित रूप हैं- के माध्यम से अपने विचारों एवं भावों को अभिव्यक्ति दे पाना, यही मनुष्य की अपनी विशिष्टता है । क्योंकि शब्दप्रधान भाषा के माध्यम से मनुष्य जितनी स्पष्टता के साथ अपने विचारों एवं भावों का सम्प्रेषण कर सकता है, उतनी स्पष्टता से विश्व का कोई दूसरा प्राणी नहीं । उदाहरण के लिए कोई भी व्यक्ति मात्र ध्वनि संकेत या अंग-संकेत से किसी वस्तु की स्वादानुभूति की अभिव्यक्ति उतनी स्पष्टता से नहीं कर सकता है, जितनी शब्दप्रधान भाषा के माध्यम से कर सकता है । यद्यपि भाषा या शब्द- प्रतीकों के माध्यम से की गई यह अभिव्यक्ति अपूर्ण, आंशिक एवं मात्र संकेत रूप ही होती है, फिर भी अभिव्यक्ति का इससे अधिक स्पष्ट कोई अन्य माध्यम खोजा नहीं जा सका है।
१. तत्त्वार्थसूत्र, ५।२१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org