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________________ 67 टलिउ गिरिराउ खरहडिय सिलसंचया, पडिय अमरिंद थरहरिय सपवंचया रडिय दक्करिण गुज्जरिय पंचाणणा, तसिय कि डिकुम्भ उव्वसिय तरु काणणा ।। भरिय सरि विवर झलह लिय जलणि हि सरा, हुवउ जग खोहु बहु मोक्खु मोहियधरा । ताम तियसिंदु णिहंतु अप्पउ घणं, वीर जय वीर जंतु कयवंदणं ॥ . पत्ता- जय जय जय वीर वीरिय णाण अणंत सुहा । महु खमहि भडारा तिहु अणसारा कवणु परमाणु तुहा ॥१८॥ अर्थात-जैसे ही सौधर्मेन्द्र कलशों को हाथों में लेकर के अभिषेक करने के लिए उद्यत हु. शंका मन में उत्पन्न हुई कि भगवान् तो बिल्कुल बालक हैं और इतने विशाल कलशों के जल के प्रवाह को मस्तक पर कैसे सह सकेंगे? तभी तीन ज्ञानधारी भगवान् के इन्द्र की शंका के समाधानार्थ चरण की एक अंगुली से सुमेरु को दबा दिया । उसको दबाते ही शिलाएं गिरने लगी, वनों में निर्द्वन्द्व बैठे गज चिंघाड़ उठे, सिंह गर्जना करने लगे और सारे देवगण भय से व्याकुल होकर इधर-उधर देखने लगे । सारा जगत् क्षोभ को प्राप्त हो गया । तब इन्द्र को अपनी भूल ज्ञात हुई और अपनी निन्दा करता हुआ तथा भगवान् की जय-जयकार करता हुआ क्षमा मांगने लगा कि हे अनन्त वीर्य और सुख के भण्डार ! मुझे क्षमा करो, तुम्हारे बल का प्रमाण कौन जान सकता है । (२) कवि ने इस बात का उल्लेख किया है कि ६६ दिन तक दिव्य ध्वनि नहीं खिरने पर भी भगवान् भूतल पर विहार करते रहे । यथा णिग्गंथाइय समउ भरं तह, के वलि किरणहो घर विहरंतह । गय छासहि दिणंतर जामहि, अमराहि उमणि चिंतइ तामहि ॥ इय सामग्गि सयल जिणणाहहो , पंचमणाणुग्गम गयवाहहो । किं कारणु णउ वाणि पयासइ, जीवाइय तच्चाइण भासइ ।। (पत्र ८३ B) अर्थात- केवल ज्ञान प्राप्त हो जाने पर निर्ग्रन्थ मुनि आदि के साथ धरातल पर विहार करते हुए छयासठ दिन, बीत जाने पर भी जब भगवान् की दिव्य वाणी प्रकट नहीं हुई । तब इन्द्र के मन में चिन्ता हुई कि दिव्य ध्वनि प्रगट नहीं होने का क्या कारण है? अन्य चरित वर्णन करने वालों ने भगवान् के विहार का इस प्रकार का उल्लेख नहीं किया है ।। (३) कवि ने इस बात का भी उल्लेख किया है कि भगवान् अन्तिम समय पावापुरी के बाहिरी सरोवर के मध्य में स्थित शिलातल पर जाकर ध्यानारुढ़ हो गये और वहीं से योग-निरोध कर अघाति कर्मों का क्षय करते हुए निर्वाण को प्राप्त हुए। समग्र ग्रन्थ में दो प्रकरण और उल्लेखनीय हैं- सिंह को संबोधन करते हुए 'जिन रत्ति विधान' तप का तथा दीक्षा कल्याणक के पूर्व भगवान द्वारा १२ भावनाओं के चिन्तवन का विस्तृत वर्णन किया गया है। बीच में श्रेणिक, अभयकुमारादि के चरित्र का भी विस्तृत वर्णन है। श्री कुमुदचन्द्रकृत महावीर रास श्री कुमुदचन्द्र ने अपने महावीर रास की रचना राजस्थानी भाषा में की है । कथानक में प्रायः सकलकीर्ति के महावीर चरित्र का आश्रय लिया गया है । इसमें भी भ. महावीर के पूर्वभव पुरुरवा भील से वर्णन कियेगये हैं । इसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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