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________________ 60 इस प्रकार इस अध्याय में देवों के आने का और समवशरण की रचना का विस्तार से वर्णन किया गया है । पन्द्रहवें अध्याय में बताया गया है कि सभी देव-देवियां, मनुष्य और तियंच समवशरण के मध्यवर्ती १२ कोठों में यथा स्थान बैठे । इन्द्र ने भगवान् की पूजा-अर्चा कर विस्तार से स्तुति की और वह भी अपने स्थान पर जा बैठा। सभी लोग भगवान् का उपदेश सुनने के लिए उत्सुक बैठे थे, फिर भी दिव्य ध्वनि प्रकट नहीं हुई । धीरे धीरे तीन पहर बीत गये तब इन्द्र चिन्तित हुआ । अवधिज्ञान से उसने जाना कि गणधर के अभाव से भगवान् की दिव्यध्वनि नहीं प्रकट हो रही है । तब वह वृद्ध विप्र का रूप बना कर गौतम के पास गया और वही प्रसिद्ध श्लोक कह कर अर्थ पूछा । शेष कथानक वही है, जिसे पहले लिखा जा चुका है । अन्त में गौतम आते हैं, मानस्तम्ब देखते ही मानभंग होता है और भगवान् के समीप पहुँच कर बड़े भक्ति भाव से भगवान् की स्तुति करते हैं । सकलकीर्ति ने इस स्तुति को १०८ नामों के उल्लेखपूर्वक ५० श्लोकों में रचा है । सोलहवे अध्याय में गौतम के पूछने पर भगवान् के द्वारा षटद्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्त तत्त्व और नव पदार्थों का विस्तार से वर्णन किया गया है। सत्रहवें अध्याय में गौतम-द्वारा पूछे गये पुण्य-पाप विपाक-सम्बन्धी अनेकों प्रश्नों का उत्तर दिया गया है, जो कि मनन के योग्य हैं । अठारहवें अध्याय में भगवान् के द्वारा दिये गृहस्थ-धर्म, मुनिधर्म, लोक-विभाग, काल-विभाग आदि उपदेश का वर्णन है । गौतम भगवान् के इस प्रकार के दिव्य उपदेश को सुनकर बहुत प्रभावित होते हैं, और अपनी निन्दा करते हुए कहते हैं- हाय, हाय! आज तक का समय मैंने मिथ्यात्व का सेवन करते हुए व्यर्थ गंवा दिया । फिर भगवान् के मुख कमल को देखते हुए कहते हैं-आज मैं धन्य हुआ, मेरा जन्म सफल हुआ, क्योंकि महान् पुण्य से मुझे जगद्गुरु प्राप्त हुए हैं । इस प्रकार परम विशुद्दि को प्राप्त होते हुए गौतम ने अपने दोनों भाइयों और शिष्यों के साथ जिनदीक्षा ग्रहण कर ली । यथा अहो मिथ्यात्वमार्गोऽयं विश्वपापाकरोऽशुभः । चिरं वृथा मया निंद्यः सेवितो मूडचेतसा ॥१३३।। अद्याहमेव धन्योऽहं सफलं जन्म मेऽखिलम् । यतो मयातिपुण्येन प्राप्तो देवो जगद्-गुरुः ॥१४४॥ त्रिशुद्धया परया भक्त्याऽऽर्हती मुद्रां जगन्नुताम् । भ्रातृभ्यां सह जग्राह तत्क्षणं च द्विजोत्तमः ॥१४९॥ गौतम के दीक्षित होते ही इन्द्र ने उनकी पूजा की और उनके गणधर होने की नामोल्लेख-पूर्वक घोषणा की। तभी गौतम को सप्त ऋद्धियां प्राप्त हुई । उन्होंने भगवान् के उपदेशों को-जो श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के प्रात:काल अर्थ रूप से प्रकट हुए थे- उसी दिन अपराह्न में अंग-पूर्व रूप से विभाजित कर ग्रन्थ रूप से रचना की । उन्नीसवें अध्याय में सौधर्मेन्द्र ने भगवान् की अर्थ-गम्भीर और विस्तृत स्तुति करके भव्यलोकों के उद्धारार्थ विहार करने का प्रस्ताव किया और भव्यों के पुण्य से प्रेरित भगवान् का सर्व आर्य देशों में विहार हुआ । अन्त में वे विपुलाचल पर पहुँचे । राजा श्रेणिक ने आकर वन्दना-अर्चना करके धर्मोपदेश सुना और अपने पूर्व भव पूछे, साथ ही अपने व्रतादिग्रहण के भाव न होने का कारण भी पूछा । भगवान् के द्वारा सभी प्रश्नों का उत्तर सुनकर श्रेणिक ने सम्यक्त्व ग्रहण किया और तत्पश्चात् सोलह कारण भावनाओं को भाते हुए तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध किया । अन्त में भगवान् पावा नगरी के उद्यान में पहुंचे और योगनिरोध करके अघाति कर्मों का क्षय करते हुए मुक्ति को प्राप्त हुए । देव-इन्द्रादिकों ने आकर निर्वाण कल्याणक किया । गौतम को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ और उसी की स्मृति में दीपावली का पर्व प्रचलित हुआ । १. यामत्रये गतेऽप्यस्याहतो न ध्वनिनिर्गमः । हेतुना केन जायेतादीन्द्रो हृदीत्यचिन्तयत् ।।७।। (श्री वर्धमान चरित, अ. १५) Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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