SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 39 लिए जा रहे हैं। उनका यह उत्तर सुनकर इन्द्रभूति गौतम विचारने लगा- क्या वेदार्थ से शून्य यह महावीर सर्वज्ञ हो सकता है ? जब मैं इतना बड़ा विद्वान होने पर भी आज तक सर्वज्ञ नहीं हो सका तो यह वेद-बाह्य महावीर कैसे सर्वज्ञ हो सकता है ? चलकर इसकी परीक्षा करना चाहिए और ऐसा सोच कर वह भी उसी ओर चल दिया जिस ओर कि सभी नगर-निवासी जा रहे थे । भ. महावीर के समवशरण में गौतम इन्द्रभूति और उनके अन्य साथी विद्वान् किस प्रकार पहुंचे, इसका ऊपर जो उल्लेख किया गया है, वह श्वे. शास्त्रों के आधार पर किया गया है । दि. शास्त्रों के अनुसार भगवान् को कैवल्य की प्राप्ति हो जाने के पश्चात् समवशरण की रचना तो इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने वैशाख शुक्ला १० के दिन ही कर दी । सपरिवार चतुर्निकाय देवों के साथ आकर के इन्द्र ने केवल-कल्याणक भी मनाया और भगवान् की पूजा करके अपने प्रकोष्ठ में जा बैठा तथा भगवान् के मुखारविन्द से धर्मोपदेश सुनने की प्रतीक्षा करने लगा । प्रतीक्षा करतेकरते दिन पर दिन बीतने लगे। तब इन्द्र बड़ा चिन्तित हुआ कि भगवान् के उपदेश नहीं देने का क्या कारण है ? जब उसने अपने अवधिज्ञान से जाना कि 'गणधर' के न होने से भगवान् का उपदेश नहीं हो रहा है, तब वह गणधर के योग्य व्यक्ति के अन्वेषण में तत्पर हुआ- और उस समय के सर्व श्रेष्ठ विद्वान् एवं वेद-वेदांग के पारगामी इन्द्रभूति गौतम के पास एक शिष्य का रूप बना कर पहुंचा और बोला कि एक गाथा' का अर्थ पूछने को आपके पास आया है । इन्द्रभूति इस शर्त पर गाथा का अर्थ बताने के लिए राजी हुए कि अर्थ जानने के बाद वह उनका शिष्य बन जायगा। जब इन्द्रभूति गौतम ने उससे पूछा कि वह गाथा तूने कहां से सीखी है ? तब उसने उत्तर दिया-मैंने यह अपने गुरु महावीर से सीखी है; किन्तु उन्होंने कई दिनों से मौन धारण कर लिया है, अत: उसका अर्थ जानने के लिए मैं आपके पास आया हूँ। वे गाथा सुनकर बहुत चकराये । और समझ न सके कि पंच अस्तिकाय क्या हैं, छह जीवनिकाय कौन से हैं, आठ प्रवचन मात्रा कौनसी हैं ? इन्द्रभूति जीव के अस्तित्व के विषय में स्वयं ही शंकित थे, अतः और १. षट्खंडागमकी धवला टीका में वह गाथा इस प्रकार दी है पंचव अत्थिकाया, छज्जीवणिकाया महव्वया पंच । अट्ट य पवयणमादा, सहेउओ बंध-मोक्खो य ॥ (षट्खंडागम, पु. ९, पृ. १२९) संस्कृत ग्रन्थों में उक्त गाथा के स्थान पर यह श्लोक पाया जाता हैत्रैकाल्यं द्रव्यषटकं नवपदसहिंत जीवषट्कायलेश्याः, पञ्चान्ये चास्तिकाया व्रतसमितिगतिज्ञानचारित्रभेदाः । इत्येवन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितैः प्रोक्तमर्हद्भिरीशैः, प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्दष्टिः । (तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतभक्तिः ) कुछ अन्य ग्रन्थों में यही श्लोक कुछ पाठ-के साथ भी मिलता है । -सम्पादक अहुणा गुरु सो मउणे संठिउ, कहइ ण किंपि ज्झाणपरिट्ठिउ । एव्वहिं तुम्ह पयडमई णिसुणिय सत्थत्थहं अइ कुसल वियाणिय । तहो कव्वहु अत्थत्थिउ आयउ, कहहु तंपि महु वियलिय मायउ । (रयधुकृत-महावीर चरित-पत्र ४९) मुझ गुरु मौन लीयुं, वर्धमान तेह नाम । तेह भणी तुझ पूछिवा, आव्युं अर्ध गुणग्राम ॥ __(महावीर रास, पत्र १२० A) ३. खओवसमजणिद-चउरमलबुद्धिसंपण्णेण बम्बहणेण गोदमगोदेण सयलदुस्सुदिपारएणजीवाजीव-विसयसंदेह-विणासण? मुवगय-वड्डमाणपादमूलेण इंदभूदिणावहारिदो । (षखंडागम, पुस्तक १, पृ. ६४) २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy