SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 38 हुआ । उसने अवधि ज्ञान से जाना कि भ. महावीर को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ है, अतएव तुरन्त ही सब देवों के साथ भगवान् की वन्दना के लिए आया । इन्द्र के आदेश से कुबेर ने एक विशाल सभा-मण्डप रचा, जिसे कि जैन शास्त्रों की परिभाषा में समवसरण या समवशरण कहते हैं । इस पद का अर्थ है सर्व ओर से आने वाले लोगों को समान रूप से शरण देने वाला स्थान । जिस दिन भ. महावीर को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ, उसके कुछ समय पूर्व से ही मध्यम पावापुरी में सोमिल नाम के ब्राह्मण ने अपनी यज्ञशाला में एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया था और उसमें सम्मिलित होने के लिए उसने उस समय के प्रायः सभी प्रमुख एवं प्रधान ब्राह्मण विद्वानों को अपनी शिष्य-मण्डली के साथ आमन्त्रित किया था । उस यज्ञ में भाग लेने के लिए इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति ये तीनों ही गौतमगोत्री विद्वान्-जो कि सगे भाई थे-अपने-अपने पांच पांचसौ शिष्यों के साथ आये हुए थे । ये मगध देश के गोबर ग्राम के निवासी थे और इनके पिता का नाम वसुभूति और माता का नाम पृथ्वी था । यद्यपि ये तीनों ही विद्वान् वेद-वेदांगादि चौदह विद्याओं के ज्ञाता थे, तथापि इन्द्रभूति को जीव के विषय में, अग्निभूति को कर्म के विषय में और वायुभूति को जीव और शरीर के विषय में शंका थी। उसी यज्ञ-समारोह में कोल्लाग-सन्निवेश-वासी आर्यव्यक्त नाम के विद्वान् भी सम्मिलित हुए थे। इनके पिता नाम धनमित्र और माता का नाम वारुणी था । इनका गोत्र भारद्वाज था । इन्हें पंचभूतों के विषय में शंका थी, अर्थात् ये जीव की उत्पत्ती पृथ्वी, जल, अग्नि वायु और आकाश इन पंच भूतों से ही मानते थे । जीव की स्वतन्त्र सत्ता है कि नहीं, इस विषय में इन्हें शंका थी । इनके भी पांच सौ शिष्य थे । उनके साथ ये यज्ञ में आये थे । उसी कोल्लाग-सन्निवेश के सुधर्मा नाम के विद्वान् भी यज्ञ में आये थे, जो अग्निवैश्यायनगोत्री थे। इनके पिता का नाम धम्मिल्ल था और माता का नाम भद्दिला था । इनका विश्वास था कि वर्तमान में जो जीव जिस पर्याय (अवस्था) में है, वह मर कर भी उसी पर्याय में उत्पन्न होता है । पर आगम-प्रमाण न मिलने से ये अपने मत में सन्दिग्ध थे। इनके भी पांच सौ शिष्य उनके साथ यज्ञ-समारोह में शामिल हुए थे। उसी यज्ञ में मौर्य-सन्निवेश के निवासी मण्डिक और मौर्य पुत्र नामक विद्वान् भी अपने साढ़े तीन-तीन सौ शिष्यों के साथ सम्मिलित हुए । मण्डिक वशिष्ठ-गौत्री थे, इनके पिता का नाम धनदेव और माता का नाम विजया था । इन्हें बन्ध और मोक्ष के विषय में शंका थी । मौर्य-पुत्र कश्यप-गोत्री थे। इनके पिता का नाम मौर्य और माता का नाम विजया था, इन्हें देवों के अस्तित्व के विषय में शंका थी । उस यज्ञ में भाग लेने के लिए अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य, और प्रभास नाम के चार अन्य विद्वान भी आये थे, (इनके पिता-मातादि के नाम चौदहवें सर्ग में दिये हुए हैं ।) इनमें से प्रत्येक का शिष्य-परिवार तीनसौ शिष्यों का को नरक के विषय में, अचलभ्राता को पुण्य के सम्बन्ध में, मेतार्य को परलोक के संबंध में और प्रभास को मुक्ति के सम्बन्ध में शंका थी । अकस्पित मिथिला के थे और उनका गौतम गोत्र था । अचल भ्राता कौशल के थे और उनका गोत्र हारित था । मेतार्य कौशाम्बी के समीपवर्ती तुंगिकग्राम के थे और उनका गोत्र कौण्डिन्य था । प्रभास राजगृह के थे, उनका भी गौत्र कौण्डिन्य था । वे सभी विद्वान् ब्राह्मण थे और वेद-वेदाङ्ग के पारगामी थे । परन्तु अभिमान-वश ये अपनी शंकाओं को किसी अन्य के सम्मुख प्रकट नहीं करते थे। जिस समय इधर समवशरण में आकाश से देवगण आ रहे थे उसी समय उधर सोमिल ब्राह्मण के यहां यज्ञ भी हो रहा था और उपर्युक्त विद्वान अपने-अपने शिष्य परिवार के साथ वहां उपस्थित थे, अतः उन्होंने उपस्थित लोगों से कहा- देखो हमारे मंत्रों के प्रभाव से देवगण भी यज्ञ में शामिल होकर अपना हव्य-अंश लेने के लिए आ रहे हैं । पर जब उन्होंने देखा कि ये देवगण तो उनके यज्ञस्थल पर न आकर दूसरी ही ओर जा रहे हैं, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । मनुष्यों को भी जब उसी ओर को जाते हुए देखा, तो उनके विस्मय का ठिकाना न रहा और जाते हुए लोगों से पूछा कि तुम लोग कहां जा रहे हो ? लोगों ने बताया कि महावीर, सर्वज्ञ तीर्थंकर यहां आये हुए हैं, उनका धर्मोपदेश सुनने के लिए हम लोग जा रहे हैं और हम ही क्या, ये देव लोग भी स्वर्ग से उतर कर उनका उपदेश सुनने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy