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________________ 19 उस समय ब्राह्मणों ने यहां तक कानून बना दिये थे कि 'शूद्र को ज्ञान नहीं देना चाहिए, न यज्ञ का उच्छिष्ट और हवन से बचा हुआ भाग, और न उसे धर्म का उपदेश ही देना चाहिए । यदि कोई शूद्र को धर्मोपदेश और व्रत का आदेश देता है, तो वह शूद्र के साथ असंवृत नामक अन्धकारमय नरक में जाता है। शूद्रों के लिए वेदादि धर्म ग्रन्थों के पढ़ने का अधिकार तो था ही नहीं, प्रत्युत यहां तक व्यवस्था का विधान ब्राह्मणों ने कर रखा था कि जिस गांव में शूद्र निवास करता हो, वहां वेद का पाठ भी न किया जावे । यदि वेदध्वनि शूद्र के कानों में पड़ जाय, तो उसके कानों में गर्म शीशा और लाख भर दी जाय, वेद वाक्य का उच्चारण करने पर उसकी जिह्वा का छेद कर दिया जाय और वेद-मंत्र याद कर लेने पर उसके शरीर के दो टुकड़े कर दिये जावें। उस समय शूद्रों को नीच, अधम एवं अस्पृश्य समझ कर उनकी छाया तक से परहेज किया जाता था । आचार के स्थान पर जातीय श्रेष्ठता का ही बोल-बाला था। पग-पग पर रुढ़ियां, कुप्रथाएं और कुरीतियों का बाहुल्य था । स्वार्थलोलुपता, कामुकता और विलासिता ही सर्वत्र दृष्टिगोचर होती थी। यज्ञों में होने वाली पशु-हिंसा ने मनुष्यों के हृदय निर्दयी और कठोर बना दिये थे । बौद्धों के 'चित्तसम्भूत जातक' में लिखा है कि एक समय ब्राह्मण और वैश्य कुलीन दो स्त्रियां नगर के एक महाद्वार से निकल रही थी, मार्ग में उन्हें दो चाण्डाल मिले । चाण्डालों के देखने को उन्होंने अपशकुन समझा । अतः घर के लोगों से उन चाण्डालों को खूब पिटवाया और उनकी दुर्गति कराई । मातंग जातक और सद्धर्म जातक बौद्ध ग्रन्थों से भी अछूतों के प्रति किये जाने वाले घृणित व्यवहार का पता चलता है। ब्राह्मणों ने जाति व्यवस्था को जन्म के आधार पर प्रतिष्ठित कर रखा था, अतएव वे अपने को सर्वश्रेष्ठ मानते थे । भरत चक्रवर्ती ने जब ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की तब उनकी धार्मिक प्रवृत्तियों को देखकर ही उन्हें उत्तम कहा था । किन्तु धीरे-धीरे उनकी गुण-कृत महत्ता ने जाति या जन्म का स्थान ले लिया और उन्होंने अपने को धर्म का अधिकारी ही नहीं, अपितु ठेकेदार तक होने की घोषणा कर दी थी । इस प्रकार की उस समय धार्मिक व्यवस्था थी। आर्थिक व्यवस्था की दृष्टि से उस समय का समाज साधारणतः सुखी था, किन्तु दासी-दास की बड़ी ही भयानक प्रथा प्रचलित थी । कभी-कभी तो दास-दासियों पर अमानुषिक घोर अत्याचार होते थे। विजेता राजा विजित राज्य के स्त्री-पुरुषों को बन्दी बनाकर अपने राज्य में ले आता था और उनमें से अधिकांशों को चौराहों पर खड़ा करके नीलाम कर दिया जाता था । अधिक बोली लगाने वाला उन्हें अपने घर ले जाता और वस्त्र-भोजन देकर रात-दिन उनसे घरेलू कार्यों को कराया करता था। दासी-दास की यह प्रथा अभी-अभी तक रजवाड़ों में चलती रही है । इस प्रकार की धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक विषम परिस्थितियों के समय भ. महावीर ने जन्म लिया । बालकाल के व्यतीत होते ही उन्होंने अपनी दृष्टि चारों ओर दौड़ाई और तात्कालिक समाज का अच्छी तरह अध्ययन करके इस निर्णय पर पहुँचे कि मैं अपना जीवन लोगों के उद्धार में ही लगाऊंगा और उन्हें उनके महान कष्टों से विमुक्त करुंगा। फलस्वरूप उन्होंने विवाह करने और राज्य सम्भालने से इनकार कर दिया और स्वयं प्रबजित होकर एक लम्बे समय तक कठोर साधना की । पुनः कैवल्य-प्राप्ति के पश्चात् अपने लक्ष्यानुसार जीवन-पर्यन्त उन्होंने जगत् को सुमार्ग दिखाकर १. न शूद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम् । न चास्योपदिशेद्धर्म न चास्य व्रतमादिशेत् ॥ यश्चास्योपदिशेद्धर्म यश्चास्य व्रतमादिशेत् । सोऽसंवृत तमो घोरं सह तेन प्रपद्दते ॥ (वशिष्ठ स्मृति १८।१२-१३) २. अथ हास्य वेदमुपशृण्वतस्त्रपु-जतुभ्यां श्रोत्र-प्रतिपूरण मुद्राहरणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीर-भेदः ।। क्यालङ्कारे । उपश्रुत्य बुद्धिपूर्वकमक्षरग्रहणमुपश्रवणम् । अस्य शूद्रस्य वेमुपचण्वतस्त्रपु-जतुभ्यां त्रपुणा (शीसकेन) जतुना च द्रवीकृतेन श्रोत्रे प्रतिपूरयितव्ये । स चेद् द्विजातिभिः सह वेदाक्षराण्युदाहरेदुच्चरेत्, तस्य जिह्वा छेद्या। धारणे सति यदाऽन्यत्र गतोऽपि स्वयमुच्चारियितुं शक्नोति, ततः परश्वादिना शरीरमस्य भेद्यम् । (गौतम धर्म सूत्र अ. ३, सू. ४ टीका पृ. ८९-९० पूंना संस्करण, वर्ष १९३१) टीका-अथ हेति वाक्याल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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